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स्याम! मैं कैसे मन समझाऊँ / स्वामी सनातनदेव
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राग कालिंगड़ा, तीन ताल 21.8.1974
स्याम! मैं कैसे मन समझाऊँ।
जो चाह्यौ सो मिल्यौ न नैंकहुँ, व्यर्थहि वयस बिताऊँ॥
मन की लगन अगिन सम जारत, निसि-दिन वृथा ललाऊँ।
मिली न अपनी निधि करुनानिधि! कैसे धीर धराऊँ॥1॥
कहि-कहि थक्यौ न भयो काज कछु, कबलौं अलख जगाऊँ।
तुम तो दाता पाय हाय! मैं क्यों निरास ह्वै जाऊँ॥2॥
तुमने ही यह आग लगाई, कैसे याहि बुझाऊँ।
दीखत कोउ सहाय न दूजो, तरसि-तरसि रह जाऊँ॥3॥
कछु तो कृपा करहु करुनामय! कछु तो ढाढस पाऊँ।
जानत हो सब ही तुम जी की, कहि-कहि कहा जनाऊँ॥4॥
सब कछु लेहु देहु निज पद-रति एतेमें सब पाऊँ।
तुम बिनु और मिलहि कित यह रस, जित यह प्यास बुझाऊँ॥5॥