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यह मन-अनत-अनत ही भटकै / स्वामी सनातनदेव
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राग जोगकोश, तीन ताल 22.7.1974
यह मन अनत<ref>अन्यत्र, दूसरी जगह</ref> अनत हो भटकै।
जहाँ नाहिं कछु लैनो-देनो तहूँ आय क्यों लटकै॥
जान्यौ सभी असार तदपि यह तहीं-तहीं क्यों अटकै।
वृथा अनर्गल भटकि-भटकि यह जहाँ-तहाँ सिर पटकै॥1॥
अपनी यह भटकन मनमोहन! जदपि याहि अति खटकै-
तदपि स्वान की पूँछ सरिस यह अपनी बान न झटकै॥2॥
हौं हार्यौ करि जतन तदपि यह रहत न मेरे हटकै।
तुमही कृपा करहु कछु ऐसी रहै तुमहिमें डटकै॥3॥
मैं तो तुमहिं दियो, पै तुमहूँ लेहु याहि निज करिकै।
जो तुम्हरी ह्वै जाय, न फिर यह जाय कतहुँ फिरि-फिरि कै॥4॥