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मो-सो कहो कहाँ को कामी / स्वामी सनातनदेव

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राग धनाश्री, धमार 14.9.1974

मो-सो कहो कहाँ को कामी।
ऐसी कौन वस्तु या जग में, जाकी करत न चित्त गुलामी॥
भोगि-भोगि हूँ भोगहि चाहत, कबहुँ अघात न हियो हरामी।
जोग-जोग्य दीखत न चित्त यह, महामलिन ज्यों सूकर ग्रामी॥1॥
पै का करों, न बस कछु मेरो, जानहुँ तुम सब अन्तरजामी।
जो कछु मिल्यौ मिल्यौ तुमहीसों, तुमहि कियो ग्रामी<ref>ग्रामीण, अज्ञ</ref> वा नामी॥2॥
हौं तो सदा तिहारो प्यारे! भलो-बुरो जैसो भी स्वामी।
जैसो चाहो बनाओ याकों, जानि याहि अपनो अनुगामी॥3॥
भलो-बुरो बालक का जानै, जननी ताहि करत गुनग्रामी।
हौंहूँ चरन-सरन तकि आयो, अपनो करि अपनावहु स्वामी॥4॥
पतितनकों अपनावत हो तो तजि हो क्यों मो-सो प्रतिगामी।
यही आस अब त्रास न मन में, भलै होउ जग में बदनामी॥5॥

शब्दार्थ
<references/>