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हलचल ही में दिवस गये जी! / स्वामी सनातनदेव

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राग देशकार, तीन ताल 22.9.1974

हलचल ही में दिवस गये जी।
एक चित्त ह्वै लग्यौ न हरि में, गृह-कारज हूँ न सकल भये जी!
है जग को स्वभाव ही ऐसो, कोउ बने कोउ वृथा ढये जी!
यहाँ पूर्त्ति की आस वृथा है, यासों बुधजन विरत भये जी!॥1॥
होय पूर्ति जो काहु काज की, उपजहिं तुरतहि नये-नये जी!
यासों त्यागि जगत की चिन्ता बुधजन हरि-रति निरत रहे जी!॥2॥
काहू की न बनी या जग में तो तुम ही का भये नये जी!
काहे मृगतृस्नाकों तरसहु, तहाँ न जल, जन वृथा मुये जी!॥3॥
सब तजि भजहु स्याम-पदपंकज, जिनहिं पाय नर अमर भये जी।
ते ही निज निधि हैं तब जग में, ते पाये तो जगहुँ जये जी!॥4॥
है पद प्रीति नीति सन्तन की, ताहि त्यागि ते कहुँ न गये जी!
प्रीति-प्राप्य प्रीतम के ह्वै वे आपहुँ केवल प्रीति भये जी!॥5॥
प्रीतिमात्र हैं प्रेमी-प्रीतम, प्रीतिहि के द्वै तनु उनये जी!
जे प्रेमी ते प्रीति मात्रा ह्वै प्रीतमतें नहिं भिन्न रहे जी!॥6॥

शब्दार्थ
<references/>