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संबंध-का संधि विच्छेद / भास्करानन्द झा भास्कर
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गलतफ़हमी से
और भी
बढती है संवादहीनता…
मन के संबंध
होते जाते हैं
मधुर से विकट कटु
और तब
हो ही जाता है
संबंध-का संधि विच्छेद..
कर्ता और कर्म ही
हैं वे कारक
बन जाते हैं जो
अकर्मक क्रिया
विक्षोभ,
सम्मान सर्वनाम
बदल जाते हैं
संज्ञा अनजान में,
लगे रहते
चेहरों पर हमेशा
विस्मयादिबोधक चिह्न!
मन ही मन व्यग्र,
उठती रहती है
वेदना
विरह की,
हॄदयाघात
और
तीव्र पश्चाताप की…
अन्तत:
विद्रुपित, विरुपित
हो जाता है
प्रगाढ संबंध का,
अन्तर्मन का
सहज सुन्दर व्याकरण…!