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सबल शैलेन्द्र / भास्करानन्द झा भास्कर

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उद्धत छी अहां
चलिए जेबाक लेल
ओहि पार
छोरि एहि पारक
मोह माया, माल जाल
निज जन निर्जन
निजस्व ओ
परस्वक भेद-भाव
तोड़ि अपनत्व
केर बान्हल बन्हनन...!
अछिए अहांक हृदय
दगधल,विदीर्ण
लोहछल मन
जीर्ण- शीर्ण शरीर
छल प्रपंचक
पटाक्षेप लेल
रंगमंचकें
करय लागल छी
अहां अंतिम प्रणाम!
यो भैया...
रुकि जाउ ने
आब ...
नहिं बनत केउ खलपात्र
केउ नहिं करत
अहांक दोहन
लेखन-धर्मसं पदच्यूत
नहिं हरत अहांक
बौद्धिक क्षमता
रचना-सर्जना
अहांक रहल अछि
सोनसन संसार
नहिंएटा
लगाबय देबै ककरो
कोनो उक्का
वा अपमानक आगि..
रावणो बनत लछमन
सदिखन अहांक संग
हर्खक पुष्पकमे
घूरत सगरो समांग
बनले रहब अहां
मिथिला-वनक पुष्पेन्द्र
नाट्य-लेखन
अभिनयक मुख्य केन्द्र
मैथिल सरल हृदय
हितकारी सबल शैलेन्द्र..!