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प्लेटफार्म की व्यथा / ममता व्यास
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प्लेटफार्म मन ही मन सोचता है
मेर जीवन भी क्या जीवन है।
हर आती जाती रेल मुझे कोसती है।
किसका सगा हूँ ये प्रश्न पूछती है।
रेलों का शोर है, हजारों की भीड़ है
लेकिन मन में सन्नाटा क्यों है?
बाहर इतनी रौनक,लेकिन
मन में ये चुभता सा कौन है?
रेल तो जीवन भर मुझ तक आएगी
मुझसे कभी वो कुछ नहीं पायेगी।
मैं रीता सा हूँ उसे कैसे समझाऊं?
मैं बीता सा हूँ ये सोच कापं जाऊं।
रेल दम तोड़ती होगी कहीं किसी
डगर पर
मैं भस्म हो रहा हूँ यही
इस जगह पर...