अनन्य भाव / सुजान-रसखान
सवैया
सेष सुरेस दिनेस गनेस अजेस धनेस महेस मनावौ।
कोऊ भवानी भजौ मन की सब आस सबै विधि जोई पुरावौ।
कोऊ रमा भजि लेहु महाधन कोऊ कहूँ मन वाँछित पावौ।\
पै रसखानि वही मेरा साधन और त्रिलौक रहौ कि बसावौ।।16।।\
द्रौपदी अरु गनिका गज गीध अजामिल सों कियो सो न निहारो।
गौतम-गेहिनी कैसी तरी, प्रहलाद को कैसे हर्यो दुख भारो।
काहे कौं सोच करै रसखानि कहा करि है रबिनंद विचारो।
ताखन जाखन राखियै माखन-चाखनहारो सो राखनहारो।।17।।|
देस बदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगो।
तातें तिन्हैं तजि जानि गिरयौ गुन सौगुन गाँठि परैगो।
बाँसुरीबारो बड़ो रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।
लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ।।18।।
संपति सौं सकुचाइ कुबेरहिं रूप सौ दीनी चिनौती अनंगहिं।
भोग कै कै ललचाइ पुरंदर जोग कै गंगलई धर मंगहिं।
ऐसे भए तौ कहा रसखानि रसै रसना जौ जु मुक्ति-तरंगहिं।
दै चित ताके न रंग रच्यौ जु रह्यौ रचि राधिका रानी के रंगहिं।।19।।
कंचन-मंदिर ऊँचे बनाइ कै मानिक लाइ सदा झलकयत।
प्रात ही तें सगरी नगरी नग मोतिन ही की तुलानि तुलैयत।
जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की प्रभुता मधवा ललचैयत।
ऐसे भए तौ कहा रसखानि जौ साँवरे ग्वार सों नेह न लैयत।।20।।
कवित्त
कहा रसखानि सुख संपत्ति समार कहा,
कहा तन जोगी ह्वै लगाए अंग छार को।
कहा साधे पंचानल, कहा सोए बीच नल,
कहा जीति लाए राज सिंधु आर-पार को।
जप बार-बार तप संजम वयार-व्रत,
तीरथ हजार अरे बूझत लबार को।
कीन्हौं नहीं प्यार नहीं सैयो दरबार, चित्त,
चाह्यौ न निहार्यौ जौ पै नंद के कुमार को।।21।।
कंचन के मंदिरनि दीठि ठहराति नाहिं,
सदा दीपमाल लाल-मनिक-उजारे सों।
और प्रभुताई अब कहाँ लौं बखानौं प्रति -
हारन की भीर भूप, टरत न द्वारे सों।
गंगाजी में न्हाइ मुक्ताहलहू लुटाइ, वेद,
बीस बार गाइ, ध्यान कीजत, सबारे सों।
ऐरे ही भए तो नर कहा रसखानि जो पै,
चित्त दै न कीनी प्रीति पीतपटवारे सों।।22।।
सवैया
एक सु तीरथ डोलत है इक बार हजार पुरान बके हैं।
एक लगे जप में तप में इक सिद्ध समाधिन में अटके हैं।
चेत जु देखत हौ रसखान सु मूढ़ महा सिगरे भटके हैं।
साँचहि वे जिन आपुनपौ यह स्याम गुपाल पै वारि दके हैं।।23।।|
सुनियै सब की कहिये न कछू रहियै इमि भव-बागर मैं।
करियै ब्रत नेम सचाई लिये जिन तें तरियै मन-सागर मैं।
मिलियै सब सों दुरभाव बिना रहिये सतसंग उजागर मैं।
रसखानि गुबिंदहिं यौ भजियै जिमि नागरि को चित गागर मैं।।24।।
है छल की अप्रतीत की मूरति मोद बढ़ावै विनोद कलाम में।
हाथ न ऐसे कछू रसखान तू क्यों बहकै विष पीवत काम में।
है कुच कंचन के कलसा न ये आम की गाँठ मठीक की चाम में।
बैनी नहीं मृगनैनिन की ये नसैनी लगी यमराज के धाम में।।25।।