भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम-वेदन / सुजान-रसखान

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:07, 12 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रसखान |अनुवादक= |संग्रह=सुजान-रसख...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सवैया

वह गोधन गावत गोधन मैं जब तें इहि मारग ह्वै निकस्‍यौ।
तब ते कुलकानि कितीय करौ यह पापी हियो हुलस्‍यौ हुलस्‍यौ।
अब तौ जू भईसु भई नहिं होत है लोग अजान हँस्‍यौ सुहँस्‍यौ।
कोउ पीर न जानत सो तिनके हिय मैं रसखानि बस्‍यौ।।166।।

वा मुसकान पै प्रान दियौ जिय जान दियौ वहि तान पै प्‍यारी।
मान दियौ मन मानिक के संग वा मुख मंजु पै जोबनवारी।।
वा तन कौं रसखानि पै री ताहि दियौ नहि ध्‍यान बिचारी।
सो मुंह मौरि करी अब का हुए लाल लै आज समाज में ख्‍वारी।।167।।

मोहन सों अटक्‍यौ मनु री कल जाते परै सोई क्‍यौं न बतावै।
व्‍याकुलता निरखे बिन मूरति भागति भूख न भूषन भावै।।
देखे तें नैकु सम्‍हार रहै न तबै झुकि के लखि लोग लजावै।
चैन नहीं रसखानि दुहुँ विधि भूली सबैं न कछू बनि आवें।।168।।

भई बावरी ढूँढ़ति वाहि तिया अरी लाल ही लाल भयौ कहा तेरो।
ग्रीवा तें छूटि गयौ अबहीं रसखानि तज्‍यौ घर मारग हेरो।
डरियैं कहै माय हमारौ बुरी हिय नेकु न सुनो सहै छिन मेरो।
काहे को खाइबो जाइबो है सजनी अनखाइबो सीस सहेरो।।169।।

मो मन मोहन कों मिलि कै सबहीं मुसकानि दिखाइ दई।
वह मोहनी मूरति रूपमई सबहीं जितई तब हौं चितई।।
उन तौ अपने घर की रसखानि चलौ बिधि राह लई।
कछु मोहिं को पाप पर्यौ पल मैं पग पावत पौरि पहार भई।।170।।

डोलिबो कुंजनि कुंजनि को अरु बेनु बजाइबौ धेनु चरैबो।
मोहिनी ताननि सों रसखानि सखानि के संग को गोधन गैबो।
ये सब डारि दिए मन मारि विसारि दयौ सगरौ सुख पैबौ।
भूलत क्‍यों करि नेहन ही को 'दही' करिबो मुसकाई चितैबो।।171।।

प्रेम मरोरि उठै तब ही मन पाग मरोरनि में उरझावै।
रूसे से ह्वै दृग मोसों रहैं लखि मोहन मूरति मो पै न आवै।।
बोले बिना नहिं चैन परै रसखानि सुने कल श्रीनन पावै।
भौंह मरोरिबो री रूसिबो झुकिबो पिय सों सजनी निखरावै।।171।।

बागन में मुरली रसखान सुनी सुनिकै जिय रीझ पचैगो।
धीर समीर को नीर भरौं नहिं माइ झकै और बबा सकुचैगो।।
आली दुरेधे को चोटनि नैम कहो अब कौन उपाय बचैगौ।
जायबौ भाँति कहाँ घर सों परसों वह रास परोस रचैगौ।।173।।

बेनु बजावत गोधन गावत ग्‍वालन संग गली मधि आयौ।
बाँसुरी मैं उनि मेरोई नाँव सुग्‍वालिनि के मिस टेरि सुनायौ।।
ए सजनी सुनि सास के त्रासनि नंद के पास उसास न आयौ।
कैसी करौ रसखानि नहिं हित चैनन ही चितचोर चुरायौ।।174।।

सोरठा

एरी चतुर सुजान भयौ अजान हि जान कै।
तजि दीनी पहचान, जान अपनी जान कौं।।175।।

सवैया

पूरब पुन्‍यनि तें चितई जिन ये अँखियाँ मुसकानि भरी जू।
कोऊ रहीं पुतरी सी खरी कोऊ घाट डरी कोऊ बाट परी जू।।
जे अपने घरहीं रसखानि कहैं अरु हौंसनि जाति मरी जू।
लाख जे बाल बिहाल करी ते निहाल करी न विहाल करी जू।।176।।

आजु री नंदलला निकस्‍यौ तुलसीबन तें बन कैं मुसकातो।
देखें बनै न बनै कहतै अब सो सुख जो मुख मैं न समातो।।
हौं रसखानि बिलोकिबे कौं कुलकानि के काज कियौ हिय हातो।
आइ गई अलबेली अचानक ए भटू लाज को काज कहा तो।।177।।

अति लोक की लाज समूह में छौंरि के राखि थकी वह संकट सों।
पल मैं कुलमानि की मेड नखी नहिं रोकी रुकी पल के पट सों।
रसखानि सु केतो उचाटि रही उचटी न संकोच की औचट सों।
अलि कोटि कियो हटकी न रही अटकी अँलिया लटकी औचट सों।।178।।