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मानवती राधा / सुजान-रसखान

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कवित्‍त

वारति जा पर ज्‍यौ न थकै चहुँ ओर जिती नृप ती धरती है।
मान सखै धरती सों कहाँ जिहि रूप लखै रति सी रती है।
जा रसखान‍ बिलोकन काजू सदाई सदा हरती बरती है।
तो लगि ता मन मोहन कौं अँखियाँ निसि द्यौस हहा करती है।।205।।

मान की औधि है आधी घरी अरी जौ रसखानि डरै हित कें डर।
कै हित छोड़िये पारियै पाइनि एसे कटाछन हीं हियरा-हर।।
मोहनलाल कों हाल बिलोकियै नेकु कछू किनि छ्वै कर सों कर।
ना करिबे पर वारे हैं प्रान कहा करि हैं अब हाँ करिबे पर।।206।।

तू गरबाइ कहा झगर रसखानि तेरे बस बाबरो होसै।|
तौ हूँ न छाती सिराइ अरी करि झार इतै उतै बाझिन कोसै।
लालहि लाल कियें अँखियाँ गहि लालहि काल सौं क्‍यौ भई रोसै।
ऐ बिधना तू कहा री पढ़ी बस राख्‍यौ गुपालहिं लाल भरोसै।।207।।

पिय सों तुम मान कर्यौ कत नागरि आजु कहा किनहूँ सिख दीनी।
ऐसे मनोहर प्रीतम के तरुनी बरुनी पग पोछ नवीनी।।
सुंदर हास सुधानिधि सो मुख नैननि चैन महारस भीनी।।
रसखानि न लागत तोहिं कछू अब तेरी तिया किनहूँ मति दीनी।।208।।

कवित्‍त

डहडही बैरी मंजु डार सहकार की पै,
            चहचही चुहल चहूकित अलीन की।
लहलही लोनी लता लपटी तमालन पै,
            कहकही तापै कोकिला की काकलीन की।।
तहतही करि रसखानि के मिलन हेत,
             बहबही बानि तजि मानस मलीन की।
महमही मंद-मंद मारुत मिलनि तैसी,
            गहगही खिलनि गुलाब की कलीन को।।209।।

सवैया

जो कबहूँ मग पाँव न देतु सु तो हित लालन आपुन गौनै।
मेरो कह्यौ करि मान तजौ कहि मोहन सों बलि बोल सलौने।
सौहें दिबावत हौं रसखानि तूँ सौंहैं करै किन लाखनि लौने।
नोखी तूँ मानिन मान कर्यौ किन मान बसत मैं कीनी है कौनै।।210।।