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बाल काण्ड / भाग 5 / रामचंद्रिका / केशवदास

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तोमर छंद

चहुँभाग बाग तड़ाग। अब देखिए बड़भाग।।
फल फूल सों संयुक्त। अलि यों रमै जनु मुक्त।।97।।
(दोहा) रामचंद्र-ते न नगरि ना नागरी, प्रतिपद हंसक हीन।
जलजहार शोभित न जहँ, प्रगट पयोधर पीन।।98।।

सवैया

सातहु दीपन के अवनीपति हारि रहे जिय मंे जन जाने।
बीस बिसे व्रत (बीसों बिस्वा, निश्चय) भंग भयो, सो कहौ, अब केशव, को धनु ताने?
शोक की आगि लगी परिपूरण आइ गये घनश्याम बिहाने।
जानकि के जनकादिक के सब फूलि उठे तरुपुणय पुराने।।99।।

विश्वामित्र और जनक की भेंट
दोधक छंद

आइ गये ऋषिराजहिं लीने। मुख्य सतानद विप्र प्रवीने।
देखि दुवौ भये पाँयनि लीने। आशिष शीरषुबासु लै दीने।।100।।

सवैया

केशव ये मिथिलाधिप हैं जग में जिन कीरतिबेले वई है।
दान-कृपान विधानन सों सिगरी वसुधा जिन हाथ लई है।
अंग छ सातक आठक (वेदांग) शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, निरुक्त, छंद। सात अंग-(राजनीति के) राजा, मंत्री, मित्र, कोष, देश, दुर्ग, सेना। आठ अंग- (अष्टांगयोग) यम, नियम, आसन, प्राणायाम, पत्याहार, ध्यान धारण, समाधि। सों भव तीनिहु लोक में सिद्धि भई है।
वेदत्रयी अरु राजसिरी परिपूरणता शुभ योगमई है।।101।।
(सोरठा) जनक-जिन अपनों तन स्वर्ण, मेलि तपोमय अग्नि मैं।
कीन्हों उत्तमवर्ण, तेई बिश्वामित्र ये।।102।।

मोहन छंद

लक्ष्मण-जनराजवंत। जगयोगर्वत।
तिनको उदोत। केहि भाँति होत।।103।।

विजय छंद

श्रीराम- सब छत्रिन आदि दै काहु छुई न छुए बिजनादिक बात डगै।
न घटै न बढ़ै निशि बासर केशव लोकन को तमतेज मगै।
नवभूषण (शिवजी का अलंकार, राख) भूषित होत नहीं मदमत्त गजादि मसी (गर्व की) कालिमा न लगै।
जलहूँ थलहूँ परिपूरण श्री निमि के कुल अद्भुत त्योति जगै।।104।।

तारक छंद

जनक- यह कीरति और नरेशन सोहै।
सुनि देव अवेदन को मन मोहै।
हम को बपुरा सुनिए ऋषिराई।
सब गाँउँ छ सातक की ठकुराई।।105।।

विजय छंद

विश्वामित्र-

आपने आपने ठौरनि तौ भुवपाल सबै भुव पालै सदाई।
केवल नामहि के भुवपाल कहावत हैं भुवि पालि न जाई।
भूपति की तुमहीं धरि देह बिदेहन में कल कीरति गाई।
केशव भूपन को भवि (भव्य) भूषण भू तन तैं तनया उजपाई।।106।।
(दोहा) जनक- इहि विधि को चित चातुरी, तिनकों कहा अकत्थ।
लोकन की रचना रुचिर, रचिबै कौं समरत्थ।।107।।

दोधक छंद

ये सुत कौन के सोभहिं साजे?
सुंदर श्यामल गौर विराजे।
जानत हौं जिय सोदर दोऊ।
कै कमला विमला (सरस्वती) पति कोऊ।।108।।

चौपाई

विश्वामित्र-

सुंदर श्यामल राम सु जानो। गौर सुलक्ष्मण नाम बखानो।।
आशिष देहु इन्हैं सब कोऊ। सूरज के कुलमंडन दोऊ।।109।।
(दोहा) नृपमणि दशरथ नृपति के, प्रगटे चारि कुमार।
राम भरत लक्ष्मण ललित, अरु शत्रुघ्न उदार।।110।।

घनाक्षरी

दानि के शील, पर दान के प्रहारी दिन,
दानवारि ज्यों निदान देखिए सुभाय के।
दीप दीप हूँ के अवनीपन के अवनीप,
पृथु सम केशोदास दास द्विज गाय के।
आनँद के कंद सुरपालक के बालक ये,
परदारप्रिय (लक्ष्मी अथवा पृथ्वी) साधु मन वच काय के।
देहधर्मधारी पै विदेहराज जू से राज,
राजत कुमार ऐसे दशरथ राय के।।111।।

तार छंद

रघुनाथ शरासन चाहत देख्यो।
अति दुष्कर राजसमाजनि लेख्यो
जनक-ऋषि है वह मंदिर माँझ मँगाऊँ।
गहि ल्यावहि हौं जनयूथ बुलाऊँ।।112।।

दंडक छंद

बज्र तें कठोर है, कैलाश ते विशाल, काल-
दंड तें कराल, सब काल काल गावई।
केशव त्रिलोक के विलोक हारे देव सब,
छोड़ चंद्रचूड़ एक और को चढ़ावई,?
पन्नग प्रचंड पति प्रभु की पनच पीन,
पर्वतारि-पर्वत प्रभा (सुमेरु पर्वत की आभा) न मान पावई।
विनायक एक्हू पै आवै न पिनाक ताकि।
कोमल कमलपाणि राम कैसे ल्यावई।।113।।

तोमर

विश्वामित्र-मुनि रामचंद्र कुमार। धनु आनिए यहि बार।
पुनि बेगि ताहि चढ़ाव। यश लोक लोक बढ़ाव।।114।।

धनुष भंग

(दोहा) ऋषिहि देखि हर्ष्यो हियो, राम देखि कुम्हलाइ।
धनुष देखि डरपै महा, चिंता चित्त डोलाइ।।115।।

स्वागता छंद

रामचंद्र कटिसों पटु बाँध्यो। लीलयेव हर को धनु साँध्यो।।
नेकु तहि करपल्लव सों छ्वै। फूलमूल जिमि टूक करîो द्वै।।116।।

सवैंया

उत्तम गाथ सनाथ जबै धनु श्री रघुनाथ जु हाथ कैं लीनो।
निर्गुण ते गुणवंत कियो सुख केशव संत अनंतन दीनो।
ऐंचो जहीं तबहीं कियो संयुत तिच्छ कटाच्छ नराच नवीनो।
राजकुमार निहारि सनेह सों शंभु को साँचो शरासन कीनो।।117।।

विजया छंद

प्रथम टंकोर झुकि झारि संसार मद
चंड कोदड रह्यो मंडी नव खंड को।
चालि अचला अचल घालि दिगपाल बल
पालि ऋषिराज के बचन परचंड को।
सोधु दै ईश को, बोधु जगदीश को,
क्रोधु उपजाइ भृगुनंद बरिवंड को।
बाधि (बाधा पहुँचाकर। धनुर्भंग के घोर शब्द से स्वर्ग के देवता घबरा गये।)वर स्वर्ग को, साचि अपवर्ग (मोक्ष। मोक्ष पद सब लोकों के परे समझा जाता है। सब लोकों को पार कर वहाँ तक शब्द पहुँच गया) धनु
भंग को शब्द गयो भेदि ब्रह्मांड को।।118।।

(दोहा) जनक- सतानंद आनंद मति तुम जो हुते उन साथ।
बरज्यो काहे न धनुष जब तोरîो श्रीरघुनाथ।।119।।

तोमर

सतानंद-सुनु राजराज विदेह। जब हौं गयो वहि गेह।
कछु मैं न जानी बात। कब तोरियो धनु तात।।120।।