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बाल काण्ड / भाग 8 / रामचंद्रिका / केशवदास

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विशेषक छंद

स्याम दुबौ पग लाल लसै द्युति यों तल की।
मानहुँ सेवति ज्योति गिरा यमुनाजल की।
पाट जटी अति स्वेत सो हीरन की अवली।
देवनदी कन मानहुँ सेवत भाँति भली।।170।।
(दोहा) को बरनै रघुनाथ छबि, केसव बुद्धि उदार।
जाकी किरपा सोभिजति, सोभा सब संसार।।171।।

सीता का रूप वर्णन

दंडक

को है दमयंती इंदुमती रति राति दिन,
होहिं न छबीली छबि इन जो सिंगारिए।
केशव लजात जलजात जातवेद (अग्नि) ओप,
जातरूप (सुवर्ण) सो निहारिए।
मदन निरूपम निरूपन निरूप भयो,
चंद बहुरूप अनुरूप कै विचारिए।
सीताजू के रूप पर देवता कुरूप को हैं?
रूप ही के रूपक तौ वारि वारि डारिए।।172।।

गीतिका छंद

श्री सोभिजै सखि सुंदरी जनु दामिनी वपु मंडिकै।
घन स्याम को जनु सेवहीं अड मेघ-ओषन छंडिकै।।
इक अंग चर्चित चारु नंदन चंद्रिका तजि चंद को।
जनु राहु के भय सेवहीं रघुनाथ आनंदकंद को।।173।।
मुख एक है नत लोक लोचन लोल लोचन को हरे।
जनु जानकी सँग सोभिजै सुभ लाज देहन को धरे।।
तहँ एक फूलन के बिभूखन एक मोतिन के किये।
जनु छीरसागर देवता तन छीर छीटनि को छिए।।174।।
(सोरठा) पहिरे वसन सुरग, पावक युत स्वाहा (अग्नि, पावक की सौ) मनो।
सहज सुगंधित अंग, मानो देवी मलय की।।175।।

दायज वर्णन

चामर छंद

मत्त दंतिराज राजि बाजिराज राजि कै।
हेम हीर मुक्त चीर चारु साज सजि कै।
वेस वेस बाहिनी असेस वस्तु सोधियो।
दाइजो विदेहराज भाँति भाँति को दियो।।176।।
वस्त्र भौन स्यों (सहित) वितान आसने बिछावने।
अस्त्र सस्त्र अंगप्राण भाजनादि को गने।
दासि दास बासि (सुगंध से सुवासित कर के) बास (वस्त्र) रोम पाट के कियो।
दाइजा (विदेहराज) भाँति भाँति को दियो।।177।।

परशुराम संवाद

(दोहा) विश्वामित्र बिदा भये, जनक फिरे पहुँचाइ।
मिले आगिली फौज को, परसुराम अकुलाइ।।178।।

चंचरी छंद

मत्त दति अमत हो गये देखि देखि न गज्जहीं।
ठौर ठौर सुदेस केशव दुंदुभि नहि बज्जहीं।।
डारि डारि हथ्यार सूरन जीव लै लै भज्जहीं।
काटि कै तनत्राण एकै नारि वेखन सज्जहीं।।179।।
(दोहा) वामदेव ऋषि सों कह्यो, ‘परसुराम रणवीर।
महादेव को धुनष यह, को तोरेउ बलबीर?।।180।।
वामदेव-महादेव को धनुष यह, परशुराम ऋषिराज।
तोरेउ ‘रा’ यह कहतहीं समुझेउ रावनराज।।181।।

चंद्रकला छंद

परशुराम-बर बान-सिखीन असेस समुद्रहि,
सोखि सखा सुख ही तरिहौं।
पुनि लंकहिं औटि कलंकित कै,
फिरि पंक कनंकहिं की भरिहौं।।
भल भूँजि कै राख सुखै (सहज ही में) करिकै,
दुख दीरघ देखन को हरिहौं।
सितकंठ के कंठन को कठुला,
दसकंठ के कंठन को करिहौं।।182।।

संयुता छंद

परशुराम- यह कौन को दल देखिए?
वामदेव- यह राम को प्रभु लेखिए।।
परशुराम- कहि कौन राम न जानियो।
वामदेव- शर ताड़का जिन मारियो।।183।।

विजय छंद

परशुराम-ताड़का सँहारी तिय न विचारी
कौन बड़ाई ताहि हने?
वामदेव-मारीच हुते सँग प्रबल सकल खल
अरु सुबाहु काहू न गने।
करि क्रतु (यज्ञ) रखवारी गुरु सुखकारी
गौतम की तिय सुद्ध करी।
जिन रघुकुल मंड्यो हरधनु खंड्यो
सीय स्वयंवर माँझ बरी।।184।।
परशुराम- (दोहा) हर हू होतो दंड द्वै, धनुष चढ़ावत कष्ट।
देखो महिमा काल की, कियो सो नरसिसु नष्ट।।185।।

विजय छंद

बोरों सबै रघुबंस कुठार की धार में बारन बाजि सरत्थहिं।
बान की वायु उड़ाइ कै लच्छमन लच्छ करौं अरिहा, समरत्थहिं।
रामहिं बाम समेत पठै वन कोप कै भार मैं ठाूँ जैं भरत्थहिं।
जो धनु हाथ धरै रघुनाथ तौ आजु अनाथ, करों दसरत्थहिं।।186।।
(सोरठा) राम देखि रघुनाथ, रथ ते उतरे वेगि दै।
गहे भरथ को हाथ, आवत राम विलोकियो।।187।।

दंडक छंद

परशुराम-अमल सजल घनस्याम वपु केसौदास
चंद्र हू ते चारु मुख सुखमा को ग्राम है।
कोमल कमल दल दीरघविलोचननि
सोदर समान रूप न्यारो न्यारो नाम है।।
बालक विलोकियत पूरन पुरुष, गुन
मेरो मन मोहियत ऐसो रूप धाम है।
वर मान वामदेव को धनुख तोरो इन
जानत हौं बीसबिसे राम बेस काम हैं।।188।।

गीतिका छंद

भरत-कुस मुद्रिका समिधैं श्रुवा कुस औ’ कमंडल को लिये।
करमूल सर धनु तर्कसी भृगुलात सी दरसै हिये।
धनु बाण तिच्छ कुठार केसव मेखला मृग चर्म सों।
रघुबीर को यह देखिए रसवीर सात्विक धर्म सों।।189।।

नाराच छंद

राम- प्रचंड हैहयाधिराज दंडमान जानिए।
अखड कीर्तिलेय भूमि देयमान मानिए।।
अदेव देव जेय भीत रच्छमान लेखिए।
अमर्य तेज भर्गभक्त भार्गवेश देखिए।।190।।
परशुराम- सुनि रामचंद्र कुमार। मन वचन कीर्ति उदार।।
राम- भृगुवंश के अवतंस। मानवृत्ति है केहि अंस।।191।।
परशुराम- तोरि सरासन संकर को सुभ सीय स्वयंबर माँझ बरी।
ताते बढ़îो अभिमान महा मन मेरीयो नेक न संक करी।।
राम- सो अपराध परो हम सों अब क्यों सुधरै तुमहूँ धौं कहौ।
परशुराम- बाहु दै दोउ कुठारहिं केशव आपने धाम को पंथ गहौ।।192।।

कुंडलिया

राम- टूटै टूटनहार तरु वायुहि दीजत दोस।
त्यौं अब हर के धनुख को हम पर कीजत रोस।
हम पर कीजत रोस कालगति जानि न जायी।
होनहार ह्वै रहै मिटै मेटी न मिटायी।
होनहार ह्वै रहै मोह मद सब को छूटै।
होइ तिनूका वज्र वज्र तिनुका ह्वै टूटै।।193।।