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अरण्य काण्ड / भाग 2 / रामचंद्रिका / केशवदास

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सवैया

लक्ष्मण- सब जाति फटी दुख की दुपटी, कपटी न रहै जहँ एक घटी।
निघटी रुचि मीचघटीहूँ घटी, जग जीव यतीन की छटी तटी (समाधि)।।
अघ-ओघ की बेरी कटी विकटी, निकटी प्रकटी गुरुज्ञान गटी (गठरी)।
चहुँओरन नाचति मुक्तिनटी, गुण धूरजटी वनपंचवटी।।18।।

हाकलिका छंद

शोभत दंडक की रुचि बनी। भाँतिन भाँतिन सुंदर घनी।।
सेब बड़े नृप की जनु लसै। श्रीफल भूरि भाव जहँ बसै।।19।।
बेर भयानक सी अति लगै। अर्क-समूह जहाँ जगमगै।।
नैनन को बहुरूपन ग्रसै। श्रीहरि को जनु मुरति लसै।।20।।

दोधक छंद

राम- पांडव की प्रतिमा सम लेखौ।
अर्जुन भीम (अम्लबेतस, भीमसेन) महामति देखौ।।
है सुभगा सम दीपति पूरी।
सिंदुर की तिलकावलि रूरी।।21।।
राजति है यह ज्यौं कुलकन्या।
धाइ विराजति हैं सँग धन्या।।
केलि-थली जनु श्री गिरिजा की।
शोभ धरे शितकंठ (मयूर, महादेव) प्रभा की।।22।।

गोदावरी वर्णन

मनहरन छंद

अति निकट गोदावरी पाप-संहारिणी।
चल तरंग तुंगावली चारु संचारिणी।
अलि कमल सौगंध लीला मनोहारिणी।
बहु नयन देवेश शोभा मनोधारिणी।।23।।

दोधक छंद

रीति मनो अविवेक की थापी।
साधुन की गति पावत पापी।।
कंजज (ब्रह्मा) की मति सी बड़भागी।
श्री हरिमंदिर (समुद्र, विष्णु स्थान) सौं अनुरागी।।24।।

अमृतगति छंद

निपट पतिव्रत धरणी। जग जनके दुख हरणी।
निगम सदा गति सुनिए। अगति महापति गुनिए।।25।।
(दोहा) विषमय (जल, विष से परिपूर्ण) यह गोदावरी, अमृतन को फल देति।
केशव जीवनहार कौ, दुख अशेष हरि लेति।।26।।

वन विलास वर्णन

त्रिभंगी छंद

जब जब धरि वीना प्रगट प्रवीना,
बहु गुण लीना सुख सीता।
पिय जियहि रिझावै, दुखिन भजावै;
विविध बजावै गुण गीता।
तजि मति संसारी विपिन बिहारी,
दुख सुखकारी घिरि आवैं।।
तब तब जग भूषण रिपुकुल दूषण,
सबको भूषण पहिरावैं।।27।।

तोटक छंद

कबरी कुसुमालि सिखीन दयी।
गज कुंभनि हारनि शोभमयी।।
मुकुता शुक सारिक नाक रचे।
कटि केहरि किंकिणि सोभ सचे।।28।।

दुलरी कल कोकिल कंठ बनी।
मृग खंजन अजन भाँति ठनी।।
नृप हंसनि नूपुर शोभ भिरी।
कल हंसनि कंठनि कंठसिरी।।29।।

मुख-वासनि वासित कीन तब।
तृण गुल्म लता तरु शैल सबै।।
जलहू थलहू यहि रीति रमैं।
घन जीव जहाँ तहँ सग भ्रमैं।।30।।

(दोहा) सहज सुगंधि शरीर की, दिशि विदिशन अवगाहि।
दूती ज्यों आई लिये, केशव शूर्पनखाहि।31।।

शूर्पणखा राम संवाद

मरहट्टा छंद

इक दिन रघुनायक सीय सहायक रतिनायक नुहारी।
शुभ गोदावरि तट विमल पंचवट बैठे हुते मुरारी।।
छबि देखत ही मन मदन मथ्यो तनु शूर्पणखा तेहि काल।
अति सुंदर तनु करि कछु धीरज धरि बोलि वचन रसाल।।32।।

शूर्पणखा-

किन्नर हौ नर रूप बिचच्छन, यच्छ कि स्वच्छ सरीरनि सोहौ।
चित्त चकोर के चंद किधौं, मृग लोचन चारु विमाननि रोहौ (आरोहरण करते हो, सवार हो, सवार हो जाते हो)।।
अंग धरे कि अनग हौ केसव अंगी अनेकन के मन मौहौ।
वीर जटानि धरे धुन-बान, लिए वनिता वन में तुम को हौ।।33।।

मनोरम छंद

राम- हम हैं दशरत्थ महीपति के सुत।
शुभ राम सुलक्ष्मण नामक संयुत।।
यह शासन दै पठये नृप कानन।
मुनि पालहु मारहु राक्षस के गन।।34।।