भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लंका काण्ड / भाग 1 / रामचंद्रिका / केशवदास

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:11, 16 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशवदास |अनुवादक= |संग्रह=रामचंद्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रावण प्रति मंदोदरी का उपदेश

विजय छंद

मंदोदरी- राम की बाम जो आनी चोराइ,
सो लंक मैं मीचु की बेलि बई जू।
क्यौं रन जीतेहुगे तिसौं, जिन,
की धनुरेख न नाँघि गई जू।।
बीस बिसे बलवंत हुते जो
हुती दृग केसव रूपरई जू।
तोरि सरासन संकर को पिय
सीय स्वयंवर क्यौं न लई जू।।1।।
बालि बली न बच्यो पर खोरहिं
क्यौं बचिहौ तुम आपनि खोरहिं।
जा लगि छीर समुद्र मथ्यो कहि
कैसे न बाँधिहैं वारिध थोरहिं।।
श्री रघुनाथ गनौ असमर्थ न,
देखि बिना रथ हाथिन घोरहिं।
तोरîयो सरासन संकर को जेहि
सोव कहा तुव लंक न तोरहिं।।2।।

विभीषण शरणागमन

सवैया

दीनदयालु कहावत केसव हौं अति दीन दशा गह्यो गाढ़ो।
रावन के अघ-ओघ समुद्र मैं बूढ़त हौं कर ही गहि काढ़ो।।
ज्यौं गज की प्रहलाद की कीरति त्यौंही विभीषण को यस बाढ़ो।
आरत बंधु पुकार सुनौ किन, आरत हौं तौ पुकारत ठाढ़ो।।3।।
केसव आपु सदा सह्यो दुःख पै दासन देखि सकौ न दुखारे।
जाकों भयो जेहि भाँति जहाँ दुख त्यौंहीं तहाँ तिहि भाँति पधारे।।
मेरिय बार अबार कहा, कहूँ नाहिं तू काहु के दोश बिचारे।
बूड़त हौं महा मोह समुद्र मैं, राखत काहे न राखनहारे?।।4।।

हरिलीला छंद

श्री रामचंद्र अति आरतवंत जानि।
लीन्हो बोलाय शरणागत सुखःदानि।।
लंकेश आस चिरजीवहि लंक धाम।
राजा कहाउ जौं लगि जग राम नाम।।5।।

सेतु बंध

(दोहा) जहँ तहँ वानर सिंधु मैं, गिरिगन डारत आनि।
शब्द रह्यो भरिपूरि महि, रावन को दुखदानि।।6।।

तोटक छंद

उछलै जल उच्च अकास चढ़ै।
जल जोर दिसा विदिसान मढ़ै।
जनु सिंधु अकासनदी अरि कै।
बहु भाँति मनावत पाँ परि कै।।7।।
बहु ब्टयोम विमान तैं भीजि गये।
जल जोर भये अँगरागमये।।
सुर सागर मानहु युद्ध जये।
सिगरे पट भूषन लूटि लये।।8।।
अति उच्छलि छिछि त्रिकूट जयो।
पुर रावण के जल जोर भयो।।
तब लंक हनूमत लाइ (अग्नि) दयी।
नल मानहु आइ बुझाइ लयी।।9।।
लगि सेतु जहाँ तहँ सोभ गहे।
सरितानि के फेरि (उलटे) प्रवाह बहे।।
पति देवनदी रति देखि भली।
पितु के घर को जनु रूसि चली।।10।।
सब सागर नागर सेतु रची।
बरनैं बहुधा युत सक्र सची।।
तिलकावलि सो सुभ सीस लसै।
मनिमाल किधौं उर मैं विलसै।।11।।

तारक छंद

उर तें सिवमूरित श्रीपति लीन्हीं।
सुभ सेतु के मूल अधिष्ठित कीन्हीं।।
इनके दरसै परसै पग जोई।
भव सागर के तरि पार सो होई।।12।।
(दोहा) सेतु मूल सिव सोभिजै, केसव परम प्रकास।
सागर जगत जहाज को, करिया (कर्णधार) केसवदास।।13।।

रामचमू वर्णन

दंडक

कंुतल ललित नील भ्रुकुटी धनुष नैन
कुमुद कटाच्छ बण (ये सब राम की सेना के बानर यूथपों के नाम हैं और श्लेष से अन्य दो पक्षों में भी इनके अर्थ लग जाते हैं, जो स्पष्ट ही हैं।) सबल सदाई है।
सुग्रीव सहित तार (एक वानर-यूथप का नाम, मोती) अंगदादि (वानर-विशेष; भुजबंध) भूषन रु,
मध्य देस केसरी (केसरी नामक यूथप सेना के मध्य में है, श्री और मृत्यु की, कमर सिंह के समान है।) सुगजगति भाई है।।
विग्रहानुकूल (अनुकूल) सब लच्छलच्छ ऋच्छबल,
ऋच्छराजमुखी (वह सेना जिसका मुखिया जामवंत है; चंद्रमुखी; भयानक) मुख केसोदास गाई है।
रामचंद्र जू की चमू राज्यश्री विभीषन की,
रावन की मीचु दरकूच चलि आई है।।14।।


चंचला छंद

ताम्रकोट लोहकोट स्वर्णकोट आसपास।
देघ की पुरी घिरी कि पर्वतारि के विलास।
बीच बीच हैं कपीश बीच बीच ऋच्छ-जाल।
लंक कन्यका गरे कि पीत नील कंठमाल।।15।।

रावण-अंगद संवाद

(दोहा) अंगद कूदि गये जहाँ आसनगत लंकेस।
मनु मधुकर करहाट (कमल की छतरी) पर, शोभित श्यामल वेस।।16।।

नाराच छंद

प्रतिहार- पढ़ौ विरंचि! मौन वेद, जीव! सोर छंडि रे।
कुबेर! बेर कैं कही, न यच्छ भीर मंडि रे।।
दिनेस! जाइ दूरि बैठु नारदादि संगहीं।
न बोलु चंद! मंदबुद्धि इंद्र की सभा नहीं।।17।।

चित्रपदा छंद

अंगद यौं सुनि बानी। चित्त महारिस आनी।
ठेलि कै लोग अनैसे। जाइ सभा महँ बैसे (बैठे)।।18।।
रावण- ‘कौन हो, पठये सो कौने, ह्याँ तुम्हैं कह काम है’?
अंगद- ‘जाति वानर, लंकनायक दूत, अंगद नाम है’
‘कौन है वह बाँधि कै हम देह पूछि सबै दही’?
‘लंक जारि संहारि अच्छ गयो सो बात वृथा कहीं’।।19।।