भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे / साग़र निज़ामी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:47, 16 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सागर निज़ामी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे ।
तुम ने बना दिया है मुहब्बत में क्या मुझे ।

हर मंज़िल-ए-हयात से गुम कर गया मुझे ।
मुड़-मुड़ के राह में वो तेरा देखना मुझे ।

कैफ़-ए-ख़ुदी ने मौज को कश्ती बना दिया,
होश-ए-ख़ुदा है अब ना ग़म-ए-नाख़ुदा मुझे ।

साक़ी बने हुए हैं वो `साग़र' शब-ए-विसाल,
इस वक़्त कोई मेरी क़सम देखता मुझे ।