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उत्तर काण्ड / भाग 7 / रामचंद्रिका / केशवदास

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 (दोहा)
प्रिय पावनि प्रियवादिनी, पतिव्रता अति शुद्ध।
जग को गुरु अरु गुर्व्विणी (गर्भवती) छाँड़त वेदविरुद्ध।।127।।
वे माता वैसे पिता, तुमसों भैया पाइ।
भरत भये अपवाद के, भाजन भूतल आइ।।128।।

हरिलीला छंद

राम- साँची कही भरत बात सबै सुजान।
सीता सदा परम शुद्ध कृपानिधान।।
मेरी कछू अबहिं इच्छ यहै सो हेरि।
मोकों हतौ बहुरि बात कहौ जो फेरि।।129।।

दाधक छंद

लक्ष्मण- दूषत जैन सदा शुभ गंगा।
छोड़हुगे वह तुंग तरंगा।।
मायहि निंदत हैं सब योगी।
क्यों तजिहैं भव भूपति भोगी।।130।।
ग्यारसि (एकादशी) निंदत है मठधारी।
भावति हैं हरिभक्तनि भारी।
निंदत है तब नामनि बामी (वाममार्गी)।
का कहिए तुम अंतर्यामी।।131।।
(दोहा) तुलसी को मानत प्रिया गौतमतिय अति अज्ञ।
सीता को छोड़न कहौ, कैसे कै सर्वज्ञ।।132।।

रूपमाला छंद

शत्रुघ्न- स्वप्नहू नहिं छोड़िए तिय गुर्ब्बिणी पल दोइ।
छोड़ियो तब शुद्ध सीतहिं गर्भमोचन होइ।।
पुत्र होइ कि पुत्रिका यह बात जानि न जाइ।
लोक लोकन मैं अलोक न लीजिए रघुराइ।।133।।
(दोहा) रामचंद्र जगचंद्र तुम, फल दल फूल समेत।
सीता या बन पùिनी, न्यायन ही दुख देत।।134।।
घर घर प्रति सब जग सुखी, राम तुम्हारे राज।
अपनेहि घर कत करत हौ, शोक अशोक समाज।।135।।

तोटक छंद

राम- तुम बालक हौ बहुधा सबमैं।
प्रति उत्तर देहु न फेरि हमैं।।
जो कहैं हम बात सो जाइ करौ।
मन मध्य न और विचार धरौ।।136।।
(दोहा) चोर होइ तौ जानिजै, (समझ लेते, लड़कर होश ठिकाने कर देते) प्रभु सों कहा बसाइ।
यह विचारि कै शत्रुहा, भरत उठे अकुलाइ।।137।।

दोधक छंद

राम- सीतहि लै अब सत्वर (शीघ्र) जैर।
राखि महावन में पुनि ऐए।
लक्ष्मण जो फिरि उत्तर दैहौ।
शासन-भंग को पातक पैहौ।।138।।
लक्ष्मण लै वन सीतहिं घाये।
थावर जंगम हूँ दुख पाये।
गगहिं देखि कह्यो यह सीता।
श्री रघुनायक की जनु गीता।।139।।
पार भये जबहीं जन दोऊ।
भीम बनी जन जंतु न कोऊ।।
निर्जल निर्जन कानन देख्यो।
भूत पिशाचन को धर लेख्यो।।140।।

नागस्वरूपिणी छंद

सीता- सुनौं न ज्ञानकारिका। शुकी पढ़ैं न सारिका।।
न होमधूम देखिए। सुगंध बंधु लेखिए।।141।।
सुनौं न वेद की गिरा। न बुद्धि होति है थिरा।।
ऋषीन की कुटी कहाँ? पतिव्रता बसैं जहाँ।।142।।
मिलै न कोउ एकहूँ। न आवते, न जातहूँ।।
चले हमैं कहाँ लिये। डेराति हैं महा हिये।।143।।
(दोहा) सुनि सुनि लक्ष्मण भीत अति, सीताजू के बैन।
उत्तर मुख आयो नहीं, जल भरि आये नैन।।144।।

नाराच छंद

विलोकि लक्ष्मणै भई विदेहजा विदेह सी।
गिरी अचेत ह्वै मनो घनै बनै तड़ीत सी।।
करी जो छाँह एक हाथ एक बात (हवा) बास (वस्त्र) सौं।
सिंच्यो शरीर बीर नैननीर हो प्रकाश सौं।।145।।

रूपमाला छंद

राम की जपसिद्धि सी सिय कों चले बन छाँड़ि।
छाँह एक फनी करी फन दीह मालनि माँड़ि।।
बालमीकि विलोकियो वन-दीवेता जनु जानि।
कल्पवृक्षलता किधौं दिवि ते गिरी भुव आनि।।146।।
सींचि मंत्र सजीव जीवन जी उठी तेहि काल।
पूँछियो मुनि कौन की दुहिता बहू अरु बाल।।
सीता- हौं सुता मिथिलेस की दशरत्थपुत्र-कलत्र।
कौन दोष तजी, न जानति, कौन आपुन अत्र?।।147।।