उत्तर काण्ड / भाग 11 / रामचंद्रिका / केशवदास
तेहिं मारियो तुव बंधु। तब ह्वै गयो सब अंधु।।
वह बाजि लै अरु वीर। रण मैं रह्यो रुपि धीर।।211।।
(दोहा) बुधि बल विक्रम रूप गुण, शील तुम्हारे राम।
काकपक्षधर बाल द्वै, जीते सब संग्राम।।212।।
चतुष्पदी छंद
राम-
गुणगण प्रतिपालक रिपुकुलघातक बालक ते रनरंता।
दशरथ नृप को सुत, मेरो सोदर, लवणासुर को हंता।।
कोऊ द्वै मुनिसुत काकपक्षयुत, सुनियत है, जिन मारे।
यहि जगतजाल के करम काल के कुटिल भयानक भारे।।213।।
मरहट्टा छंद
लक्ष्मण शुभलक्षण बुद्धि विलक्षण लेहु बाजि को शोधु।
मुनि शिशु जनि मारेहु बधु उधारेहु क्रोध न करेहु प्रबोधु।।
वह सहित दक्षिण दै प्रदक्षिणा चल्यो परम रणधीर।
देख्यो मुनिबालक सोदर उपज्यो करुणा अद्भुत वीर।।214।।
दोधक छंद
लक्ष्मण को दल दीरघ देख्यो।
कालहु ते अति भीम विशेख्यो।
कुश- दो मैं कहौ सो कहा लव कीजै।
आयुध लैहौ कि घोटक दीजै।।215।।
लक्ष्मण से लव-कुश का युद्ध
लव- बूझत हौ तौ यहै प्रभु कीजै
मो असु (प्राण) दै वरु अश्व न दीजै।।
लक्ष्मण को दल सिंधु निहारो।
ताकहँ बाण अगस्त्थ तिहारो।।216।।
कौन यहै घटिहैं अरि घेरे।
नाहिंन हाथ शरासन मेरे।।
नेकु जही दुचितो चित कीन्हों।
सूर बड़ो इषुधी (तरकस) धनु दीन्हों।।217।।
लै धनु बाण बली तब धायो।
पल्लव ज्यों दल मारि उड़ायो।।
यौं दोउ सोदर सैन सँहारैं।
ज्यौं वन पावन पौन बिहारैं।।218।।
भागत हैं भट यौं लव आगे।
राम के नाम ते ज्यों अध भागे।
यूथप यूथ यौं मारि भगायो।
बात बड़े जन मेघ उड़ायो।।219।।
सवैया
अति रोष रसै कुश केशव श्रीरघुनायक सों रणरीति रचैं।
तेहिं बार न बार भई बहु बारन खड्ग हनै न गनै विरचैं (क्रुद्ध होते हैं)।।
तहँ कुंभ फटैं गजमोती कटैं ते चले बहु श्रोणित रोचि रचैं।।
परिपूरण पूर (धार) पनारेन तैं, जनु पीक कपूरन की किरचैं।।220।।
नाराच छंद
भगे चपे चमू चमूप छोड़ि छोड़ि लक्ष्मणै।
भगे रथी महारथी गयंद वृंद को गणैं।।
कुशै लवै निरंकुशै विलोकि बंधु राम को।
उठ्यो रिसाइ कै बली बँध्यो सो लाज दाम को।।221।।
मौक्तिकदाम छंद
कुश- न हौं मकराक्ष न हाैं इंद्रजीत।
विलोकि तुम्हें रण होहुँ न भीत।
सदा तुम लक्ष्मण उक्तमगाथ।
करौ जनि आपनि मातु अनाथ।।222।।
लक्ष्मण- कहौ कुश जो कहि आवति बात।
बिलोकत हौं उपवीतहि गात।।
इते पर बालवयक्रम (बाल्यावस्था) जानि।
हिये करूणा उपजै अति आनि।।223।।
विलोचन लोचत (सकुचाते) हैं लखि तोहि।
तजौ हठ आनि भजो किन मोहिं।।
क्षम्यो अपराध अजौं घर जाहु।
हिये उपजाउ न मातहि दाहु।।224।।
दोधक छंद
हौं हातिहौं कबहूँ नहिं तोहीं। तू बरु बाणन बेवहि मोहीं।
बालक विप्र कहा हनिए जू। लोक अलोकन में गनिए जू।।225।।
हरणी छंद
कुश-
लक्ष्मण हाथ हथ्यार धरौ। यज्ञ वृथा प्रभू को न करौं।
हौं हय कौ कबहूँ न तजौं। पट्ट लिख्यौ सोइ बाँचि लजौं।।226।।
स्वागता छंद
बाण एक तब लक्ष्मण छँड्या। चर्म बर्म बहुधा खँड्यो।।
ताहि हीन कुश चित्तहि मोहै। धूमधिन्न जनु पावक सोहै।।227।।
रौष वेष कुश बाण चलायो। पानचक्र जिमि चित्त भ्रमायो।।
मोहि मोहि रथ ऊपर सोये। ताहि देखि जड़ जंगम रोये।।228।।
नाराच छंद
विराम (देर) रमा जानि कै भरत्थ सों कथा कहैं।
विचारि चित्त माँझ वीर, वीर वे कहाँ रहैं।।
सरोष देखि लक्ष्मणै त्रिलोक तौ विलुप्त ह्वै।
अदेव देवता त्रसैं कहा ते बाल दीन द्वै।।229।।
रूपमाला छंद
राम- जाहु सत्वर दूत लक्ष्मण हैं जहाँ यहि बार।
जाई कै यह बात वर्णहु रक्षियों मुनिब बार।।
हैं समर्थ सनाथ वै असमर्थ और अनार्थ।
देखिबे कहँ ल्याइयो मुनिबाल उत्त्तमगाथ।।230।।
सुंदरी छंद
भग्गुल आइ गये तबहीं बहु।
बार (द्वार) पुकारत आरत रक्षहु।।
वे बहुभाँतिन सैन सँहारत।
लक्ष्मण तौ तिनको नहिं भारत।।231।।