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परिवर्तन / स्वप्निल स्मृति / चन्द्र गुरुङ

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सर्दियों के दिनों
राजमार्ग के नग्न पेडों को पढ़कर
उन्होंने कहा–
हवा मर चुकी है।

नग्न पेडों पर पक्षियों के
पुराने घोंसलें दिखाकर
वे चिल्लाए–
गीत मर चुका है।

पेड़ पे अटके पतंगों को देखकर
उन्होंने किलकारियाँ मारी –
बस्ती के लड़के, लड़कियाँ मर चुकीं हैं।

नग्न पेड़ों पे फूल न दिखने पर
उनका मानना था–
सभी युवा बूढ़े हो चुके हैं।

लेकिन एक दिन–
पेड़ पर रंगीन पत्ते उग आए
पत्तियों पर हवा ने नाचा
नूतन नृत्य,
पक्षियों ने बनाए नए घौंसले
और गुनगुनाए
आज़ादी के सुन्दर गीत।

आकाश में उड़े
अव्यवस्थित गुब्बारे और पतंग।
दौड़ता रहा राजमार्ग
वेगवान पहाड़ी नदी की तरह।
युवक–युवतियां लहरों की तरह हुलसाए।

उस वक्त वे सब मर चुके थे।