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तुम्हें क्या पसन्द है मुझ में / स्वप्निल स्मृति

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तुम्हें जो पसन्द है मुझ में–
मैं वही दूँगा।

कितनों को मेरा चेहरा पसन्द आया
कितनों को मेरा दुख पसन्द आया
पर नहीं दिया।

कितनों ने आँसु माँगे
शायद याद आए होंगे उन्हें अपने अपने विगत
कितनों ने मेरे खुशी के उत्सव में नाचना चाहा
मिले होंगे मुझ में सुरीले गीत
कितनों ने चढ़ाई में हाथ दिए
शायद पसन्द किया होगा मुझ अकेले को
कितनों ने गुलाब के फूल दिए
पूजते हुए देवी देवताओं को।
पर मैने स्वीकार नहीं किया।

बहुतों ने मुझे अपने नाम दिए, पते दिए
अपने आप धन्यवाद दिए,
शुभकामनाएँ दीं
और दिए खाली कागज के पन्ने
चाहा कि प्रेम कविताओं के कुछ अक्षर लिख दूँ
बहुत से लोग आँखो से चुनकर ले गए मेरा परिचय
और भेजे नीले लिफाफे
पर मैंने नहीं भेजा कुछ भी जवाब
बल्कि बहा हूँ बारम्बार हिमबाढ़ जैसे
विकट सीमांत में।
मानों ठिठक के खड़ा रहा हूँ
जैसे खडा होता है माउण्ट एवरेस्ट पर्यटक के कैमरे के सामने।

आए,गए कितने प्रेमदिवस
आए, गए साल दर साल नव वर्ष
पर मैं जिया हूँ अकेला।
अकेला।।
जैसे वास्ता नहीं होता–
नदी को पुल का
फूल को भँवरे का
आईने को चेहरे का।

परन्तु,
मैं आज तुम तक इस तरह आया हूँ
जैसे आते हैं
घरआँगन में बिन बुलाए भिखारी।

तुम भी खडे हो
मेरे सामने
न जानते हुए भी, पहचानने का प्रयास करती
जैसे घर मालिकन दहलीज़ पर खड़ी होती हैं
और देखती हैं भिखारियों को।

तुम्हारा दिल मुझे पसन्द है
तुम्हारा जीवन मुझे पसन्द है
तुम्हारे खड़े होने का तरीक़ा मुझे पसन्द है।

मैं सिर्फ तुम्हें प्यार करने आया हूँ
प्यार के लिए
हथेली भर का आयतन फैलाया हूँ।

तुम्हें क्या पसन्द है मुझ में
बोलो, मैं वही दूँगा।