भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

61 से 69 / कन्हैया लाल सेठिया

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:13, 22 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कन्हैया लाल सेठिया |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

61.
(ज्यूं) हंसा करत जुहार, सूख्यो सरवर देख कर
(त्यूं) मुतलबियो संसार, राख चीत तू रमणियां।

62.
स्वारथ रो संसार, बिन स्वारथ बोलै नहीं
गिरधर है आधार, रीझ भजो थे रमणियां।

63.
बो तो है सब ठौर, मन्दिर मसजिद के धर्यो ?
करो जठै ही गौर, रमै बठै ही रमणियां।

64.
जठै मिलै सनमान, बठै ही बैठक भली
जठै सुयष री हाण, रहो न पल भर रमणियां।

65.
समझो जठै ही देव, च्यानणूं हिव में रखो
नहीं भींत रो लेव, रीझ न जाज्यो रमणियां।

66.
धरम एक आधार, साथ न छोड़ै अन्त तक
धन धरती संसार, रवै न साथै रमणियां।

67.
फळ करणी रा त्यार, पड़सी सै नै भुगतणां
करो उपाय हजार, रती न छुटैं रमणियां।

68.
मौज मजा आराम, कर भलाईं मिनख तूं
भज पण हरि रो नाम, रीझ घड़ी भर रमणियां।

69.
गरज सरै कद केह, बता सरूं भोळा मिनख ?
छीजै खाळी देह, रीस कियां स्यूं रमणियां।