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मंगलाचरण / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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जय जय भैरवि ससुर भयाउनि

जय जय भैरवि! ससुर भयाउनि,
सासु-सताउनि देवी
पति छथि पशुपति तेँ तकइत छी
अवितहि शूटक जेबी।
वासर-रैनि चरणयुग शोभित
रहइछ कोमल चट्टी,
कतओक सोझ सिउँथिकेँ कयलहुँ
गेल घुसुकि कनपट्टी।
गौर वरन स्नो पाउडर लेपल,
‘पर्स’ सुशोभित हाथे,
भैंसुर, देओर, ससुर सब अबितहि
अपन झुकाबथि माथे।
कट कट विकट ओठ-पुट पाँड़रि
रहय लिपस्टिक पोतल,
‘एयर टाइट काँर्क’ छी हे मिस!
आ मिस्टर छथि बोतल।
‘झन झन झनन वजै’ अछि चूड़ी
हन-हन, पट-पट ठोरे,
चिर कुमारिके! माथ न झॉपिअ
टेल्ह करिअ नहि कोरे।
थरथर कपइत रहइछ डरसँ
नौकर ओ चपरासी,
ननदि, देयादिनि कय न सकै’ छथि
लगमे आवि उकासी।
बैण्ड बजा हसबैण्ड मङै’ छथि
प्रत्यह भोरे माफी,
इन्दिराक युगमे जनमलि छी,
नित उठि पीबू काफी।
कटक डरेँ सब ठीक कटौलनि,
उखड़क डरसँ मोछो,
अछि प्रताप, नहि गाल बजयवामे
सकती क्यो धोँ छो।
विद्यापति कवि जीवित रहितथि
करितथि नहि अनुमानो
सहज कुमति वरदायिनि छी तेँ
मङितथि नहि वरदानो।
बतहू कवि क जोड़ि कहै’ छथि
भाभट अपन सम्हारू
फ्रेण्डक संग सिनेमा जा कय
दूनू कुलकेँ तारू।