भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जगकेँ युग / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:26, 31 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’ |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जगकेँ युग परतारि रहल अछि।

जगकेँ युग परतारि रहल अछि।
एमहर ओमहर के तकैत अछि,
अपने हाथ सुतारि रहल अछि।

उठत नियन्त्रण भारतवर्षक
सुनलक बात जखन ई हर्षक,
बनि´ा आ टुटपुजिया नेता
सब कोठी अजबाड़ि रहल अछि।
पकड़ि वेङकेँ आइ फतिंगा
सहजहिं लाभ कराबय गंगा,
बनबिलाड़केँ रँगमंच पर
मुसरी धरि ललकारि रहल अछि।

बहुतो गप्प करय नित मारक
बहुत विचारय काज सम्हारक,
बैसल विसुन-बिलाड़ि बहुत जन
सबतरि आगि पसारि रहल अछि।
बहुतोजन व्यापारी बनला’
बहुतो खद्धड़धारी बनला’
पत्रकार बनि कहुतो कवि
आ लेखककेँ टिटकारि रहल अछि।

सुरा औषधिक हेतु ग्राह्य अछि,
आजुक युगमे धर्म वाह्य अछि,
धयने मुहड़ा अनुपम मुखड़ा
निर्भय बोतल ढारि रहल अछि।

मालिक हाथी अपन गमौलक,
महथवार अधिकार जमौलक,
बगड़ा झपटल बाजक ऊपर
पदसँ पकड़ि उतारि रहल अछि।

रचना काल-1948 ई.