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पतित-पावनी श्री गङ्गाजीको झाँकी / लेखनाथ पौड्याल

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ठाडै कैलाशदेखी
    द्रुततर गतिले गड्गडाएर झर्दी
झर्दा श्रीशङ्करैको
    गल-गलित ठुलो सर्पझैं सल्ल पर्दी।
लाखौं चट्टान चिर्दी
    विकट गिरिशिला-कन्दरा चूर्ण गर्दी
बन्दै नाची दगुर्दी,
    श्रवण-विवरमा नित्य संगीत भर्दी।
आमा ! भन्दै झरेका
    सकल गिरिनदी काखमा टप्प धर्दी
छर्दी पीयूष जस्ता
    जलकण लहरी-हस्तले, मस्ती पर्दी।
कालो बर्दी-सरीको
    कलिमल मनको ध्वस्त पारेर हर्दी
गङ्गामा भुक्ति-मुक्ति
    दुइ दिदि-बहिनी नित्य खेल्छन् कपर्दी।