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जसै बङ्गको रंग छाडेर आयें / मोतिराम भट्ट

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जसै बङ्गको रंग छाडेर आयें।
तसै फागुको रंगमा म हरायें।।१।।

विनोदको अहा आज खोज्दैछु माला।
नपायेर सार्है दुखी भै करायें।।२।।

उठ्यो झोक जसै योग साघूँ कि भन्ने।
तसै फागु खेलूँ भनी मन डुलायें।।३।।

अबीरको पनी रंग कच्चै रहेछ।
दसेक धार्निमा केहि बढ्तै घसायें।।४।।

ठुलो एक झ्याँगा भरी रंग थियो।
लुगा साथ पसी रंग पक्का जमायें।।५।।

पर्यो फेरि झोक्का अबीरको उ माथि।
अबीर ह्वैन मानो विभूती रमायें।।६।।

लिये झेलि ‘मोती’ अबीरको विभूती।
विनोदी भयी मन्त्र मैले जगायें।।७।।