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राम से, कृष्ण से, बुद्ध से, बापुओं की शरण पा गए / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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राम से, कृष्ण से, बुद्ध से, बापुओं की शरण पा गए।
मूँद कर आँख चलते रहे, हम कहाँ से कहाँ आ गए।

मुश्किलों में जिए थे मगर, दूसरों को भी जीने दिया,
फिर जो पश्चिम से आया धुआँ, जो मिला मारकर खा गए।

चोर डाकू ही भाये हमें, देश हमने भी ब्याहा उन्हें,
हर सितम चुप हो सहते रहे, हम भी आखिर उन्हें भा गए।

उम्र भर धूप सहते रहे, बन सके मेघ फिर भी न हम,
अंत में बनके काला धुआँ, खुद की साँसों पे हम छा गए।

सुन समाचार कुढ़ते रहे, जिंदगी भर कहा कुछ नहीं,
अब कहें तब कहें सोचते, अंत में हम भी मुँह बा, गए।