आज़ादी या मौत / स्वामी नारायणानंद ‘अख़्तर’
अबस ज़िंदगी का गुमां है, भरत है,
गुलामी में जीना न मरने से कम है।
सितमगर ने हमको जो ग़फ़लत में पाया,
तुरत दामे-फ़ितरत में अपने फंसाया,
कहा और कुछ, और कुछ कर दिखाया,
दिखाकर के अमृत, ज़हर को पिलाया,
न उठने की ताक़त, न चलने का दम है!
वो कहते हैं हमसे कि ख़ामोश रहना,
सहो चोटें दिल पर, जुबां से न कहना,
रहे पेट ख़ाली, रहे तन बरहना,
वफादार हो तुम, जफ़ाओं को सहना,
खुली गर जुबां, तो वहीं सर क़लम है!
दिए ज़ख्म पर ज़ख्म सैयाद तूने,
सुनी बेकसों की न फ़रियाद तूने,
न रहने दिया हमको आज़ाद तूने,
किया हर तरह हमको बरबाद तूने,
ये है जुलम कैसा, ये कैसा सितम है?
तुझे भी क़सम है, जो रहने क़सर दे,
ये है ज़ख्म ताज़ा, नमक इनमें भर दे,
उठा अपना ख़ंजर, अभी क़त्ल कर दे,
है वाजिब तुझे यह, उड़ा धड़ से सर दे,
किया चाहता तू जो हम पर करम है!
सितमगर है गर ताबो-ताक़त पे नाज़ां,
तो हैं हम भी अपनी सदाक़त पे कुरबां,
यही दिल की हसरत, यही दिल में अरमां,
कि आज़ाद हों या फ़ना होवें, दे जां,
हटेगा न पीछे, बढ़ा जो क़दम है!
जिएंगे तो आज़ाद होकर रहेंगे,
जहां में कि बरबाद होकर रहेंगे,
सितमगर ही या शाद होकर रहेंगे,
कि हम शाद, आबाद होकर रहेंगे,
खुली अब हैं आँखें, खुला सब भरम है!
हमें गो कि दिक़्क़त उठानी पड़ेगी,
उन्हें खु़द-ब-ख़ुद मुंह की खानी पड़ेगी,
ये आदत पुरानी मिटानी पड़ेगी,
सरे-बज़्म गरदन झुकानी पड़ेगी,
हमें नाज़ बेजा उठाने से रम है!
चमन में न फिर गै़र का कुछ ख़तर हो,
वतन अपना आज़ाद हो, औज पर हो,
बुजुर्गों का तुम में अगर कुछ असर हो,
दिखा दो, ज़माने में फिर ऊंचा सर हो,
ग़ज़ब का ये ‘अख़्तर’ का तजेऱ्-रक़म है!
रचनाकाल: सन 1930