शहर मर रहा है / संजय शेफर्ड
शहर मर रहा था
और खतरा उन शरीफों से ज्यादा था
जो आधी रात को
किसी की अस्मत बचाने निकले थे
और उठा लाए थे
कुछ लड़कियों के सफ़ेद-स्याह दुप्पटे
और कल्पना कर रहे थे
उसकी निर्वस्त्र देह
खुली छातियों, समतल पीठ, उभरे पेट
और अंदर जाती नाभि की
दुपट्टा बंद कमरे में
रंगीन मिज़ाज मर्दाना हंसी के साथ
सीलिंग फैन के हवा संग लहरा रहा था
और शहर से आ रही थी
सिसकियों में भीगीं कुछ करुण आवाज़ें
सोचता हूं- यह कौन से लोग हैं?
जो बंद कमरे में इज्ज़त उछालते
खुले आसमान से लोकने की कोशिश करते हैं
आखिर इंसान ही तो?
उस दिन शहर मर रहा था
और खतरा उन शरीफों से ज्यादा था
जो आधी रात को
किसी की अस्मत बचाने निकले थे
और उनके हिस्से आए थे
कुछ मांस के टुकडे
मुंह में लगे हुए थे कच्चे लहू
जिन्दाबाद नारों तले पनप रहे थे
कुछ ऐसे अपराधी
जिनका जिक्र करना यहां गैरजरूरी है
अब, इस शहर को मर ही जाना चाहिए...।