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वात्सल्यक डाँट-दुलार / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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(गोकल परिसर: बाल्यचापल्य ओ वात्सल्यक डाँट-दुलार)

बलरामक संङ श्याम क्रमहि बढ़ि शिशुलीला देखबैछ
घुसकुनियासँ दैत ठेहुनियाँ गमहि ठाढ़ नहु ह्वैछ
थाथा थैया जसुदा मैया कहइत हर्ष अमन्द
उठथि खसथि पुनि उठबथि डेगहु दु्रत बिलम्वितहु छन्द
आब क्रमहि गतिवंत कर-चरण मचबथि शिशु उत्पात
ढनमनाय वर्त्तन - भाजन नटखट अटपट कहि बात
खेड़ि खेलौना नित नव नव लय हुलसि विलसि किछु काल
फेकि देथि, पुनि, तकइत जननी व्यस्त रहथि सदिकाल
पलना उपर बाल-गोपाल झुलथि किछु गीत सुनैत
सुतथि सेजपर ‘आगे निनियाँ’ जसुदा जखन गबैत
कथा-पुरान कहथि तँ हुंकारी भरि सुनथि अकानि
मत्स्य कमठ वामन वराह नरसिंहक स्मृति मन आनि
रामायण सीता-हरणक चर्चहिँ वेगेँ उठि फानि
‘धनुष-धनुष कहँ लखन?’ वाजि उठला हरि सहसा वानि
जननी-मुँह निहारि पुनि सहजहिँ शान्तचित्त हरि भेल
चुप-चुप जननी सुता देल देखइत ई अद्भुत खेल
माटि देथि मुँह, डाँट पड़नि तँ नहि-नहि कहि मुह बाबि
देखबथि विवर भुवनलीला जननी विस्मित दृग दाबि
सहसा देखि पड़य मुख-गुहा सभायल अछि संसार
सूर्य-चन्द्र नभ, भूतल गिरि, सागर त्रिलोक विस्तार
आँखि लेथि मुनि गुनि मायामय अद्भुत रूप वितान
बिसरि सकल सुधिबुधि बिलुप्त चेतना न किछु अनुमान
लगले कानब सुनि पुनि जननी माया-ममता पागि
चुप करबामे लागि जाथि सव बिसरि छनहि अनुरागि
माखन हुनकहि हेत जोगा राखथि जे जसुदा माय
गुपचुप जाय स्वयं अगुताय खाय किछु देथि खसाय
माखनचोर नाम धयलनि से पड़ोसियहु घर जाय
सत्यापित कय देल, उलहनहु सुनथि यशोदा माय
फुदुकि पड़ाय जाथि तँ जकड़ि-पकड़ि निज कोर उठाय
बोधि-प्रबोधि खोआबथि जननी कत विध व्योंत लगाय
बधवा-कौर और सर सवधिक नामहुँ सबाधि
दूध-भात रोटी-फुलकी दहि-चूड़हु कत अनुरोधि