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कसक दौरात्म्य / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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किन्तु जतय भय ईर्ष्या-द्रोहक दावानल पुरजोर
मथुरापति कंसक मन-वनमे चिन्ता-ज्वाला घोर
सुनल जखन गोकुलक लोक कहुँ उपटि बसल अछि जाय
चर-निश्चरकेँ डाँटि पठौलक, पता करह फरिछाय
नन्द मन्दमति जेठरैयति भय विनु हुकुमहि घर छोड़ि
संग-समाज साजि कहुँ जाय फरार भेल मुह मोड़ि
कोन पुर-नगर-गली बसल वा कतहु गाम नव टोल
अथवा वनगामक भय वासी रचय विरोधी गोल
रासक सहजहि नोतल अखनहि अतताई बदजाति
चलल गोकुलक गली सुङ्घानी लैत दैत मदमाति
नहि क्यौ एकहु प्राणी देखि पड़ल, ने पशु संचार
खाली घर-आङन, कोठी ढनढन, ने पथ संचार
ने दलान खरिहान बथानहु ने पनिघटपर लोक
सुन्नसान समसान बनल, नहि कतहु लोक-आलोक
पिंजड़ा खाली पड़ल कतहु पंछी उड़ि गेल अजान
जीवन-धारा चटा गेल, छल सैकत खात वितान
पुनि लगपासक लोक बजै छल नद उपटि जत गेल
से सब पता लेल, कंसहुकेँ दौथ्ड़ सूचना देल
वृन्दावन जे सरकारी शिकार हित हेतुक भिन्न
ततहि बसल आ कय गोकुलसँ नंदमहर उच्छिन्न
संग-समाज साजि कय रुचितम नवे बसल वनगाम
ने कोनहु लय सनद राजसँ, ने कोनहु दय दाम
अपनहि मनेँ काटि वन-जगल, मगल गनवय लोक
खेत-पथार दखल कय उपजा, प्रजा बसल निर्धोख
कर चुकबय नहि, सरोसलामी राजहुकेँ चुकबैछ
नंद स्वयं राजा उपनंद सचिव बनि राज करैछ
सुनितहि बजा लेल मायावी असुरक दल उद्दण्ड
कहल, जाह झट, उद्भट भटगण चलबह शासन-दण्ड
पुनि किछु सोचि कहल, पहिने विनु कहने, जाँचह जाय
की कोनहु नवका तूरक क्यौ बालक बल उमताय
जोर देखाबय सोर मचाबय विद्रोहक अधिकाय
अवतारी सन गगन-वचन मत बली छली अतिकाय
मचबह जाय उपद्रव, ककरहु करह न किछुओ रोच
ततह जतय जे बालक किछुओ बुझा पड़य पकठोस
कतबहु कानय-बाजय माय-बाप नहि राखह मोह
मोचह गरदकि मरदि मिलाबह गर्दहि बनि निर्मोह
ऋण ओ शत्रु आगिकेँ लघु नहि बुझह विदित अछि नीति
बढ़ि ओ सहजहि अंत नाश कय दैछ, शेष अनरीति
जड़िअहि काटि करह उत्पाटित, फुलय फड़य नहि पाब
बुझह न चंदन नन्दक नन्दन, असुरक कंटक-दाव