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कालिय दमन / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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ग्रीष्म समय छल प्रातहि माखन-मिसरी मिलजुलि खाय अघाय
चरबय चलला गाय दूर कहुँ पाँतर चरी देखि हर्षाय
क्रमहि घमायल दिवस, तपन किरणहु प्रचड धरती संतप्त
प्यासलि धेनु बाबि मुह हाँफय, तृष्णातुर मृग आतप-तप्त
ग्वाल-बाल तबधल छल पानि पिबय चाहय सब जतय-ततय
किछु दूरहि पर कालिय ह्नद छल किन्तु ओकर छल जल विषमय
रोकल क्यौ, नहि एतय जाह, अछि कालिय नागक भय-संत्रास
जकर जहरतँ कलुषित कारी पानि, न पिबइछ कतबहु प्यास
किन्तु रुकल नहि तबधल पशु वा लोकहु छटपट प्यासक हेतु
पिवितहि छनमे मूर्छित भय जत-तत खसले रहले नहि चेत
रहल न गेल कृष्णकेँ कतबहु रोकल-टोकल लोक तटस्थ
कूदि पड़ल कालिय-दह, सहसह करइछ जतय नागगण मस्त
आयल कालिय नाग रोषायल काढ़ल फन रोषेँ रिसिआय
दंश दन्तविष हालाहाल तिष हबकल अंग-अंग खिसिआय
असर न कोनहु पड़ल हरि उपर, कहल, कसरि नहि राखह रंच
जते जहर छल संचित तोहर जत बल छल जत दश प्रपंच
फन उठाय नाङरि जलाय दुर्वह विषदतहु देल गड़ाय
क्रोधे लहलह दुर्वह धहधह रसना लपलप दुहु उतराय
नहि पुनि कृष्णक उपर असरि कनिओ जहरक किछु देखि, दुरंत
के ई व्यक्ति शक्तिसाधक गरुड़हुसँ बढ़ि कय अछि बलवंत
फटफट फन फहराय पुच्छ धरि लब भोग सहजहिँ लेपटाय
कसि कय अकसक करय चाहलक, नख सिख धरि बान्हल बृजराय
हँसइत दामोदर उर-उदरहु प्राणायामी संयत भाव
झिकझोड़ल, मोड़ल फण, नाङरि रगड़ि कालियक प्राण अभाव
चढ़ि फण नाचय लगला मोहन वंशीधर किछु गुनगुन गाबि
सभ छल चकित भीत-चित भीषण दृश्य देखि लेलक जी दाबि
तट पर थहाथही परिजन, छाती पिटइछ हा हन्त! कनैत
धैर्य धरिअ कहलनि संकेतेँ देखिअ कालिय कोना फनैत
काल-रात्रि सन कालिन्दी-हृदमे छल कपित करइत लोक
गरुड़क डरसँ, गरुड़गामि सङ भिड़ल केहन ई बुद्धिक फोंक
कालिय विवश न किछु चलइछ वश नन्दनन्दनक चरण चुमैछ
पति-गति देखि विकल नागिनि गन त्राहि-त्राहि कहि स्तुति सुनबैछ
कहलनि हरि झट यमुना हृद तजि जाह दूर तजि बकिम रीति
चरणचिह्न ई माथ चढ़ाबह रहइत नहि पुनि गरुड़क भीति