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दावानल पान / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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एहिना बुझि पड़ अग्निदेवहुक मनमे अछि किछु राजस मोह
वनमाली की कय सकइत छथि, दावानल ज्वाला संदोह
जंगल-झाड़ी घास-पात जत बहुल चरी, नित अभ्यासी
माल जाल लय चरबय जाइछ ग्वाल-बाल जत व्रजवासी
दैछ उछन्नर असुर-निकर कंसक सह पाबि अनेक प्रकार
काँट ओछाबय, डाँट छोड़ि रूाड़य फल दल फूलहुक अमार
ताहूसँ मन भरल न जरलाहा हीही करइत उमतल
आगि लगा देलक, दावानल पुनि हू-हू करइत पसरल
हाहाकार मचल ज्वालावलि वनसँ बढ़ि आनन-फानन
बुझि पड़ आइ भस्म कय देते बाड़ी-झारी घर-आङन
आशंकित मन आतंकित जन देखि नन्दनन्दन अगुताय
सुरुकि लेल धहधह ज्वालामाला, दावानल गेल मिझाय
जेना पान कयलनि अगस्त्य मुनि सागरकेँ चट चुडुक चढ़ाय
तहिना पीबि लेलनि मनमोहन झट दावानल घोंट बनाय
चौंकि चकित अपनामे बजइछ बृजवासी जन अद्भुत खेल
नंदक छौना जादू-टोना कतय सिखल, देखल नहि गेल
कोर उठा क्यौ, कान्ह चढ़ा क्यौ, माथ सुंघय क्यो बाहु पुजय
कहय सबहु ई मानय पड़ते मानव नहि क्यौ देवतनय
लीलामय श्रीनंदनदनक अद्भुत चरित देखि सब लोक
कहइछ, व्रजमे दुखक तिमिर कहुँ रहय जतय व्रजमणि आलोक
नितप्रति कोनहु अद्भुत लीला देखा रहल छथि लीलाधाम
व्रज-रजनीक चान भय उगला नंदक नंदन रूप ललाम
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वरुण-कुबेरहुकेर मनमे सन्देह - रेह तकरहु प्रतिफल
देलनि स्वयं सुझाय-बुझाय अपन लीला देखाय अनुपल
नन्दराय एकादशी-व्रती अन्हरोषहि उठि बुझल न भेल
चलि देलनि यमुना तट सहजहिँ, राति अछैतहिँ स्नानक लेल
वरुणदेव-अनुचर संचरइत निशा-स्थानकेँ बुझल निषिद्ध
पकड़ि नन्दकेँ पहुचौलनि, स्वामी लग पाश बान्हि त्रुटि सिद्ध
यावत् किछु आदेश करथि ता’ श्याम-राम दुहु आगाँ देखि
हंत! बुझल नहि किछु चर अनुचर, छमिअ दोष अनजान परेखि
क्षमादान-पूर्वक हरि लय चललाह पिताकेँ वृन्दाधाम
आनंदित छथि नंद, मनुज नहि तनुज युगल ई देव निकाम
एहिना यक्ष कुबेर-भृत्य क्यौ शंखचूड़ छल-वल उद्दण्ड
व्रज मंडलमे मचा गेल उत्पात पातकी मूर्ख अबण्ड
तकरहु मान मरदि मणि माथक देल उतारि स्वयं बलराम
देव-गणक भ्रमजालहु टूटल, लूटल सुख व्रज-जन अभिराम