कौतुक / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
श्यामक रूप अनूप, चरित्र पवित्र, वचन मधु अद्भुत कृत्य
देखि देखि व्रजवाला मुग्धा वृत कत करथि प्राप्ति हित नित्य
पूजथि कात्यायनी ध्यान धय अगहन बिच कय प्रातः स्नान
करथि उषःकालहि उठि व्रजयुवती मन मगन नगन भय स्नान
कालिन्दी-तट तरु कदम्ब तर घाट बनल अछि जतय प्रशस्त
राखि अपन परिधान उतारि मोहारहि पर जल पैसलि मस्त
क्यौ उछलथि, क्यौ हेलथि, क्यौ ककरो ठेलथि कत करथि विनोद
मनमोहनकेँ सुमिरथि मन-मन उन्मन होथि न किछु अवरोध
कखनहु गान करथि भय उन्मन कान्हक प्रति करइत अनुरोध
अभिधहु कहि, लक्षणो वृत्ति गहि, कखनहु व्यंजनाक संबोध
मनमे रूढ़ विदित छल वृतकेर प्रयोजनहु प्रेमक उद्वोध
गीत हृदयगत भावनाक उद्गीत प्रीति-रस व्यक्त सुबोध
कलबल आबि कन्हैया एकसर लेल बटोरि सभक अंबर
चढ़ि कदम्ब झूलथि रहस्यमय लीला-रसिक किशोर कुमर
धनि जनि नदी नहाय निहुरि बहराय तकैछ सबहु निज वस्त्र
कि करथि अता-पता नहि चलल, तखन चिन्तित चित भेलि निवस्त्र
लाजेँ पुनि नदिअहिमे व्याजेँ ठिठुरि ठाढ़ व्रजवनिता हंत
हँसि भभाय केशव तरु ऊपर चढ़ल कहल, हे! धनि पुनिमंत
नगन नहायब उचित न ककरहु पुनि युवती हित अति विपरीत
करिअ न पुनि भविष्यमे तेँ हम चेता देल अनरीतहु रीत
कहल कृष्ण, सुनबे मन गुनबे वृत नहि निष्फल, पाबि प्रसर
विरह-निकष कसि प्रेम-हेम चमकत पुनि रस रासक अवसर
व्रज-युवती जन गेलि लजायलि हरिक वचन मन गुनइत गेह
हृदय भरलि मोहनक मूर्ति दर्शनसँ पूरलि-भरलि सिनेह