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देश-स्वदेश / प्रकीर्ण शतक / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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सृष्टि सिन्धु मथि अमृत ई दिव्य भारती भूमि
छल - छद्मेँ छापय चहय राहु केतु दल जूमि।।1।।
देशक सीमापर चढ़ल शत्रुक दल हुंकारि
सुनि न जकर फड़कल भुजा, पुरुषो से थिक नारि।।2।।
मोम दीप गलि गलि जरय घर भरि भरय प्रकाश
वलिदानी निज प्रान दय देशक करय विकास।।3।।
जाहि मातृ - वसुधा क शुचि माटि - पानि रस पान
शीश झुकाबय तनिक पद नित सपूत बनि धान।।4।।
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तिरहुति - नहि नन्दन-वन सुरभि घन ने अलका क निवास
लय चलु तिरहुति बाध वन तृन - तृन स्वर्ग सुपास।।5।।
पट कोकटी, पटुआ तिमन, बाड़िक आम लताम
गीत-नाद घर घर मधुर, धनि धनि तिरहुति गाम।।6।।
सीथ सोझ, कोँचा कुटिल, पैघ आँखि, मुह पानि
लुरिगरि, गितगाइनि, सहज लिअ तिरहुति तिय जानि।।7।।
पनिगर, मुहगर तिरहुतक तरुन सरस आलाप
पुर परिसर परिचितहुँ पुनि कने गमैया छाप।।8।।
धोती साँची पाग सिर ठोप डोपटा कान्ह
नोसि नाक गप-सप चफर तिरहुति बूढ़ पुरान।।9।।
शीश छत्र, पद पादुका, दण्ड हस्त, अभिषिक्त
उपवीती वटु पटु चटुल अनुशासन विनियुक्त।।10।।
अलका उपवन हिम शिखर नन्दन - वन सुर-धाम
बाड़ी - झाड़ी हमर ई अमर रहओ एहि ठाम।।11।।