पूजन: उपादान / पयस्विनी / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
धरती ताप जगाय अहीँ भाफेँ धन सघन बनौलहुँ
सरस हृदय कय द्रवण - प्रवण जीवनकेँ सहज सजौलहुँ
दूर गगन संचरणशील कल्पना - समीर बहौलहुँ
जगती हित नित यदि च अपन कन-कन जीवन वरिसबितहुँ!
ताहीसँ हे देव! अहँक पद - पंकज पाद्य चढ़बितहुँ!!1।।
कंठ-कंबुमे भरि- भरि स्वर - जल व्यंजन - बिन्दुक संचय
नयन क अर्धी मे अति तरल सलिल रस कन-कन भरि कय
स्वेद - बिन्दु सात्विकता भावित अंग-अंग उद्गत लय
दलित-व्यथितकेँ देखि-देखि उर द्रवित भाव उमड़बितहुँ!
ताहीसँ हे देव! अहाँक चरण दिस अर्ध्य घढ़बितहुँ!!2।।
गंधवती धरतीक समस्त सुरभि गुण अणु-अणु संचित
सलिलक रस लय, पवन परस दय विविध रूप रस व्यजित
तरु-तरु गुल्म लतावलि झुकि-झुकि वृन्तेँ झरि-झरि रजित
फूलक हँसिए ँ मुकुलित मनमे नवल विकास जगबितहुँ!
ताहीसँ हे देवि! अहँक उर पुष्प - हार पहिरबितहुँ!!3।।
अगुरु उरक अति शुष्क भाव चन्दन लय मलय पखाने
नागरताक कणा धूमिल धूपक सु्रति शुष्क समाने
गद्गद स्वर गुग्गुल द्रव - द्रव्यक पच सुगन्ध विधाने
अनपेक्षितहुँ उपेक्षित हृदयक आशा गन्ध उड़बितहुँ
ताहीसँ हे देव! अहाँके सुरभित - धुपित करितहुँ!!4।।
नूतन वातावरण पुरातन धरतीपर उपजाबी
मूलक मूल्य, कन्द आनन्दक फल परिणाम रचावी
वन उपवनमे तरु-तरु तृण-तृण नव रस स्वाद बढ़ाबी
नित नूतन रसज्ञ रसना हित नव रस स्ववश चढ़बितहुँ!
ताहीसँ हे देव! निवेदन नैवेद्यक हम करितहुँ!!5।।
अहीँ माटिकेँ सानि सलिलसँ वात्याचक्र घुमौलहुँ
राग - आगिसँ सुखा-पका अवकाश अकाश बसौलहुँ
स्नेह दान कय जीवन - बाती दय दीपिका सजौलहुँ!
यदि च दलित उर अन्धकारमे आशा इजोत जगबितहुँ!
ताहीसँ हे देव! अहँक मन्दिर आरती सजबितहुँ!!6।।