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लोकतंत्र के गरूर / मोती बी.ए.
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(अपनी ही मूल हिन्दी कविता ‘लोकतंत्र का गरूर’ का भोजपुरी पद्यानुवाद)
ना रहि गइल कवनो चीजु पास
ना रहि गइल कवनो बाति खास
हो गइली एकदमे बेनकाब
आर-पार एकदम परदाफास
ना कवनो बू ना कवनो बास
पूरा पूरा परदाफास
ना कवनो चिन्ता ना कवनो लाज
चाहे आम होखे भा खास
चाहे चना होखे चाहे घासि-पात
जेकरा मन करे आवे
जहवाँ चाहे जाउ
हमके खएफा के अलावे
कवनो चीजु के नइखे तलब
ना तब रहे ना अब
बाति एकेगो रहि गइल बा
खाली लोकतंत्र के गरूर
मतदान के दीने
वोट डालेबि जरूर।
27.10.94