काल की कुटिलता / मुकुटधर पांडेय
थे कल मुदित हम, आज हमको मोद पाना है नहीं
इस जिन्दगी का भाइयों! कुछ भी ठिकाना है नहीं
पाकर क्षणिक सुख-भोग हैं हा, हम अभी फूले हुए
घट जाय कैसे कौन सी घटना, इसे भूले हुए।
है उदय से ही अस्त, जीवन से मरण प्रत्यक्ष है
संयोग से समझो सदा दुस्सह वियोग समक्ष है
सुख-कौमुदी छिटकी अभी सुख मेघ देखो घिर रहा
यों नित्य सुख के संग ही दुःख भी सदा ही फिर रहा।
दिन बीतते थे सर्वदा आमोद थे जिनके बड़े
है आज एकाएक वे ही दुःख सागर में पड़े
हत-प्राण, नत मस्तक किये, गत-सत्व सांसे ले रहे
हा, किन्तु हम इस पर कभी क्या ध्यान भी हैं दे रहे?
सुख-सिन्धु में था खेलता, दुःख गर्त में क्योंकर गड़ा
था हंस रहा, क्या हो गया जो बिलखता अब पड़ा
इस तरह भंगुरता-विषम एकान्त आती दृष्टि है,
सुख नाम को ही; सर्वथा दुःख पूर्ण सारी सृष्टि है।
उत्साह से था हो रहा सुख साज अति सुन्दर जहाँ
देखो, अभी ही मच गया है दुःख का क्रन्दन वहाँ
रहते किसी को ज्ञात परिवर्तन भला ये क्या कहीं
है काल की यह कुटिलता, जानी कभी जाती नहीं।