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दुस्साहस / मुकुटधर पांडेय
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एक दिन की बात है, हे पाठकों
नोन की जब एक छोटी सी डली
सिन्धु के जल पूर्ण दुर्गम-गर्भ की
थाह लेने के लिए घर से चली
किन्तु थोड़ी दूर भी पहुँची न थी
और उसमें वह स्वयं ही घुल गई
रंग के मद में अहो पूरी रंगी
वे महा भ्रमपूर्ण आँखे धुल गई
कर बड़ा साहस चली थी वह झपट
सिन्धु के तल का लगाने को पता
वो सकल निज रूप-गुण को ही हरे
हो गई उसमें स्वयं ही लापता।
-सरस्वती, जनवरी, 1917