हृदय / मुकुटधर पांडेय
वह सिसकता जो सड़क पर है खड़ा,
है नहीं घर-द्वार का जिसके पता,
बांह ऐसे दीन की गहता हृदय
और आँसुओं को पोंछता।
जिस अभागे को हरे! सब काल है
घाव घोर अभाव का रहता बना
भूलकर उसको हृदय करता नहीं
द्वार आने से कभी अपने मना।
प्यार की दो बात कहने के लिए
जिस दुःखी के पास है कोई नहीं
पास उसके दौड़कर जाता हृदय
और घण्टों बैठ रहता है वहीं।
गोद जिसकी आज खाली हो गई,
है अनूठा रत्न जिसका खो गया
देखकर उस दुःखिनी मां की दशा
बावला-सा क्यों हृदय है हो गया?
राह पर उसको ठिठुरता शीत से
मिल गया कोई अगर नंगे बदन
शाल अपना उाल जो तो उस पर हदय
है वहीं से लौटता अपने सदन।
देख लेता जो किसी निज बंधु पर
वज्र सम आघात है आता बड़ा,
तो न प्राणों की जरा परवाह कर
सामने वह आप हा जाता खड़ा है
बेकसों का जो दबा करके गला
चालबाजी से चला देते छुरी
याद कर उनको हृदय है कांपता
वह नहीं इसमें समझता चातुरी।
देखकर उत्कर्ष औरों का सदा
हर्ष से खिलता हृदय है फूल-सा
पर किसी का दुःखमय अपकर्ष है
बेधता उसको बहुत ही शूल-सा।
स्वर्ग की भी लख अतुल सुख-सम्पदा
माँगने वह हाथ फैलाता नहीं
छोड़कर अपनी पुरानी झोपड़ी
द्वार को वह अन्य के जाता नहीं।
मुफ्त ही पर की कमाई से मिली
ले मिठाई भी सरस सीठी उसे
पर परिश्रम प्राप्त सूखी रोटियाँ
हैं अमृत के सम बड़ी मीठी उसे।
हाँ किसी श्रीमान के हाँ मंे मिला
आम भी जब नीम है जाता कहा
तब हृदय होता संभल कर है खड़ा
जब वहाँ उससे नहीं जाता रहा।
देख यह झट हाथ उसका खींचकर
स्वार्थ उसको चाहता देना बिठा
पर कुचल पाँवों तले उसको वहीं
मोह का परदा हृदय देता उठा।
धर्म रक्षा से विमुख हो अन्य जब
शक्तिशाली के पदों को चूमता
स्वीय प्राणों को हथेली पर लिये
यह सरे बाजार है तब घूमता।
-सरस्वती, मार्च 1917