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मर्दितमान / मुकुटधर पांडेय

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कहाँ गये तुम नाथ मुझे यों भूल?
गड़ता है उर बीच विरह का शूल

प्रिय, जब थे तुम सतत मेरे पास
किया तुम्हारा मैंने नित उपहास

सुनता था अब नित्य तुम्हारी बात
था उसका माधुर्य नहीं तब ज्ञात

मिलों कहीं जो शेष हृदय का त्याग
तुम्हें दिखाऊँ अपने उर की आग

पा जाऊँ मैं तुमको जो फिर नाथ
रक्खूँ उर में छिपा यत्न के साथ

बिछा हृदय पर आसन मेरे आज
सजे तुम्हारे स्वागत के सब साज

गूंथ प्रेम के फूलों की नव-माल
रक्खा मैंने पलक-पाँवड़े डाल

उत्कंठित हो दर्शन हेतु महान
राह तुम्हारी तकते हैं ये प्राण

कृपा करोगे क्या न कहो हे नाथ
रखोगे कब तक इस भाँति अनाथ

-सरस्वती, नवम्बर, 1918