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कबीन्द्र-रवीन्द्र का गान / मुकुटधर पांडेय

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शैवाल-दल सम बन्धुवर, यह नव्य मेरा गान,
रहता नहीं यह जन्म-भू में अचल मेरु समान
यद्यपि नहीं है मूल तो भी है मृदुल फल-फूल
होता सुखी जल की तरंगों में सदा वह झूल
संचय न उसको प्रिय कहीं उसका न वास स्थान,
कब वह अपरिचित अतिथि, पहुँचेगा कहाँ, क्या ज्ञान?
अविराम श्रावण-वृष्टि में जब डूबते युग-कूल
वह बह निकलता चपल गति सोद्वेग निज को भूल
उद्दाम सरिता-स्रोत में कर मार्ग अपना लीन,
वह दिगदिगन्तर पहुँचता कर प्राप्त प्रगति नवीन

-सरस्वती, सितम्बर, 1921