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गीत - 4 / मुकुटधर पांडेय
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इन मेघों के अन्तराल में।
करुणा किसकी उमड़ रही है नील गगन के उर विशाल में
चलती लू जलती जगती है क्या निदाध की प्रखर ज्वाल में
द्रवित अग्नि ले रही हिलोर क्या सरित तरंग माल में
सूख गई कलियाँ गुलाब की खिलना तक क्या न था भाल में
बिखरी सूखी पंखुड़ियाँ हैं पड़ी दरारें आल बाल में।
-सरस्वती, मार्च 1919
-सरस्वती, अप्रेल, 1919
-सरस्वती, अप्रेल, 1921