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विज्ञापन में छपी औरत / प्रकाश मनु

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वह थी-
किसी नए ब्लेड की तरह
तेज, खूंखार और नंगधड़ंग
सिर से पैर तक
किसी रंगीन उत्तेजना के तार में
पिरोई-
बेसबब कसी हुई प्रत्यंचा की तरह
मुंहफट
लाल-गुलाल और आदिम

वह थी-
किसी अनहोने अचरज की तरह
पास गया उसके तो उसने समझा वही
जो उसके धंधे की मांग थी...
बेहद बाजारू किस्म की
गद्देदार मुसकान परोसते
स्वागत किया-आओ!

और फिर उघाड़ा-जिस पर उसे गर्व था
नंगी पीठ का चर्म!
ऊंची एड़ी से कुचलती
मेरा स्वत्व
देखा कनखियों से-कितना नशा!

मेरी आंखों में था शायद
कोई झिझकता सवाल
कोई परेशानी भरा आलम
पसंद न था उसे/कतई पसंद न था
उसकी आंखे तरेरती हिंसा को
कोई भी ढीठ सवाल-

गुस्से में लाल बबुला हो
वह पलटी
मेरे देखते-देखते
बदबूदार बम्बइया गाली उगल
इकदम
अपने चिकने खोल में जा छिपी-
विज्ञापन में छपी औरत!

भौंचक में
सिर झुका जाने लगा रस्ते
तो लगा
है-है कोई इनसानी चीज
जो टनों मैल की परतों के बीच
भी जिंदा है जिंदा
कुड़बड़ा रही-

कुछ और कदम चला होऊंगा चार-पांचेक
तो सुनाई दीं सिसकियां-
देखा-आह!
ज़ार-ज़ार रो रही थी
विज्ञापन में छपी औरत

और उसका नंग धडंग जिस्म
गरम आंसुओं के
लिबास
में
छिप गया था!