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बूढ़ा बरगद और पिता का चेहरा / प्रकाश मनु

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उलझी अरूप डालों, घने पत्तों वाले
बरगद का
धूपलिया चेहरा,
अक्सर मेरे लिए
पिता का चेहरा बन गया है।

अक्सर पास से गुजरते
हवाओं में घुला
घना-घना खुरदरा प्यार
खींचता है मुझे
उस विराट प्रकृत एहसास की तरफ-

कि जो संबंधों और इतिहास की औपचारिक
संरचना से भी पूर्व
मेरा रहा है!

सीलनभरी
संवलाई, कुबड़ी परतांे की फोड़ कर
उगने लगता है
कोई गहन संवेदन मेरे भीतर
नई टहनियों, नन्ही कोंपलों की शक्ल में
और जगाता है किसी अस्पष्ट
मगर परिचित आवाज में।
जगाता है भीतर-बहुत भीतर कहीं
आत्ममुक्त खरदरा चेहरा आत्मीय समय का
आसमानों के पार से!

तब लगता है-
सबसे ऊपर की मजबूत
समानांतर डाल पर
बैठा पक्षी मैं हूं-
मैं हूं
जिसे आकाश की अनंतता
से परिचित कराने
यों उठा लिया गया है...
ममतालु कंधों पर!
अचानक सब ओर की दुनिया
नई करुणा से द्रवित,
भंेंटती है मुझे
अजाना अनुभव कोश-

और मैं महसूसता हूं
माथे पर
कुछ नई टहनियां झुक आई हैं
कुछ और कोंपलें फूट पड़ी हैं!!