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उम्र की वो नदी / प्रकाश मनु

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कहां खो गई
उम्र की वो नदी
जो खुली धूप में
कुलाचें भरती उछलती दौड़ती थी
तो समय
ठिठक जाता था

रोमांचित राहें, पड़ाव
हरे-भरे कछार
मीठे आवेग से भर
छूने को ललकते थे गाल

और वह निधड़क
पेड़ों से झुक-झुक कर बातें करती
फूलों के संग संग हंसती
अचानक खिलखिला कर
खुली रेत पर बिछ जाती थी

उमंगों भरा सीना
उमग कर
आकाश हो जाता था

गुनगुनी बांहों में
कचनार कलियों का परस,
सांसों में
चटखते गुलाबों की खुशबू
तिर आती थी...

पास
सिर्फ पास रहने की
अतर्कित प्यास लिए
पंख तोलता था मन,
दूर, जादुई उजालों की दिशा में
उजले हंसों की तरह

अब नहीं हैं वे मुक्त हवाएं
वे जिद्दी उफान,
मगर
अब भी, कभी-कभी
पारे की तरह थरथराता एकान्त
अधीर हो
पूछता है सवाल

कि कहां खो गई
उम्र की वो नदी
जो कुलांचे भरती दौड़ती थी
और समय उसकी गंुजलक में
कैद हो जाता था!