भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

औरत / प्रकाश मनु

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:40, 18 जून 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रकाश मनु |अनुवादक= |संग्रह=छूटत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

औरत यह करे
औरत वह करे
औरत यहां अड़ें
औरत वहां मरे

औरत क्या नहीं है
औरत क्यों नहीं है?
औरत को बुलाओ
आकर मार खाए
और अंगीठी दहकाए
चाय उबालने

औरत कुरता सिले
वक्त की लगातार बढ़ती हुई बेढंगी
गरदन
के हिसाब से जो बढ़ता रहे

औरत स्वेटर बुने
सदियों लंबा
नए डिजायनों की करवट जो बदलता रहे
औरत रोटी बनाए
पचासों सालों तक
जो कभी पूरी सिंकने में न आए

एक बहुत बड़ा स्तन
लाख-
करोड़ बच्चों को चुसाए
औरत रात के वक्त
एक मोटी गाली
का आदेश पाते ही
आदमी की गंधाती मांद
में घुस जाए

जंगली जानवरों की गरम सांसों
नाखूनों
औरे चीरते अट्टहासों
से डरी-डरी
घबराकर न रोए न चिल्लाए

औरत चाहे आधुनिका हो
फैशनेबुल हो, पढ़ी-लिखी हो, बुद्धिमती हो
या गांव की तहजीब में पली
मायावंती हो,
उसे बताओ-
कि आज भी वही सदियों पुरानी
जर्जर नींव है
उसके वजूद की

कि मरद का गुस्सा हल्काने
जब भी हो मौका
मोरा गेहुंआ
मांस परोस कर
तश्तरी में
लाए-
रोज
रोज

एक वही स्वाद-
और और भीतर
खोलती चली जाए!

बेदम होने तक
लगातार
नीचे गाए
नाचती चली जाए अंधी हवाओं
की ताल पर
उलटी टंगी

और एक दिन...
आखिर-
पीली पत्ती की तरह-
फिर कभी याद नहीं आए!