मेरी चाह / जयप्रकाश कर्दम
पिघलाकर भाग्य और भगवान की छुट्टी
खिलाकर निष्काम कर्म की अफीम
कुन्द किया गया है / मेरी चेतना को
किया गया है मुझे / निस्तेज, निष्प्राण
मेरी ज़िन्दगी के अक्स पर
अंकित है पीड़ा और / यन्त्रणाओं के निशान
ये निशान टीसते हैं
कशिशते हैं, चीख़ते हैं
कोसते हैं मेरे अज्ञान / और भोलेपन को
मेरे संयम —
सहनशीलता पर चीख़ते हैं
असह्य हो गया है / अब यन्त्रणाओं की
आग में जलना
उपेक्षा और अपमान के / अंगारों पर चलना
असह्य हो गया है / अब पीना घृणा का ज़हर
स्वीकार नहीं मुझे अब / साँझ के सूरज का ढलना
मैं भोर के सूरज सा—
उदय होना चाहता हूँ
अन्धेरों से—
निकलना चाहता हूँ
बहुत भटका हूँ / विभेद और अन्याय की / गलियों में
मैं समता के राजपथ पर—
चलना चाहता हूँ
मैं घृणा नहीं / प्यार चाहता हूँ
हिंसा का नकार चाहता हूँ
मैं विद्वेष नहीं—
सामंजस्य चाहता हूँ
बर्बरता और दमन का—
प्रतिकार चाहता हूँ
मैं जेठ की लू नहीं—
सावन की बयार चाहता हूँ
भेद-भाव का पतझड़ नहीं—
बन्धुता की बहार चाहता हूँ
मैं पशुता का जंगल नहीं—
मनुष्यता का संसार चाहता हूँ।