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आम्बेडकरीय कविता - 4 / प्रेमशंकर
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हमने युद्ध—
खेतों-खलिहानों और/ मैदानों में लड़ा है
ड्राइंगरूम के अन्दर / बैठकर हिजड़ों-सा
काल्पनिक युद्ध नहीं
आज हम मूर्तियों का युद्ध / लड़ रहे हैं
बंजर ज़मीनों के
ऊपर / उसे ज़रख़ेज़ बनाने के लिए
अपने बेटों का बलिदान देकर
ताकि—
संस्कृति का दोगलापन फिर कभी भी
इस ज़मीन पर जड़ें न जमा सके
और किसी ग़रीब अछूत बँधुआ
मज़दूर का पीढ़ी-दर-पीढ़ी
कोई शोषण न कर सके
साहित्य, संस्कृति और धर्म की
दुहाई देकर।