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बाकल का दलित / प्रभाकर गजभिये
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हमारे देश का बाकल— एक ऐसा गाँव है
जहाँ आज भी दलित चलता नंगे पाँव है
गाँव में चप्पल पहन घूम सकता नहीं
आनन्द के क्षणों में झूम सकता नहीं
दलित शोषण और दमन के शिकार हैं
सवर्णों का अवर्णों पर पूरा अधिकार है
वर्ण-व्यवस्था का बहुत बोलबाला है
आज़ादी के होठों पर पड़ा यहाँ ताला है
आज भी उन्हें आज़ादी मिलनी बाक़ी है
जी हाँ, यही स्वतन्त्र भारत की झाँकी है