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तुम्हारे महलों को / असंग घोष
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नथिया ने,
नागफनी से कँटीले
95वें वसन्त देखे हैं
अपनी फूँस की मड़ैया में
ख़ूब समझने लगी है
तुम्हारी शतरंज की शातिर चालें
अब उसकी हँड़िया में
साग नहीं खदकता
खिचड़ी खदकती है
विप्लव की।
अब
जब भी
उसकी फूँस की मड़ैया जलेगी
आग की लपटें
धुएँगीं तुम्हारे महलों को
गाय रँभाएगी
सोन-चिरैया भुनेंगी—
चटर-पटर चबेना-सी
बम-बारूद की फसलें उगेंगी—
तुम्हारे खेत-खलिहनों में!!