घर / प्रकाश मनु
यह जो एक छिपा हुए लघु,लघुतर कोना है
दरवाजे के पीछे
इसमें साबुन, मंजन, टूथपेस्ट की जगह निकल सकते है मजे से
इघर अखबार रहेंगे कोने में, उधर मेज पर किताबें
उधर कपड़े, बर्तन, खाने के डब्बे और कुछ
अटरम-पटरम अलमारी में।
रसोई में थोड़ी-सी निकल आएगी पूजा की जगह
दरवाजे के ऊपरी कोने में एक तसवीर-धूप-बत्ती
बाहर हफ्ते भर की आलू-प्याज, अदरक-लहसुन
आंगन में सूखती हुई मिर्चे, सूखता धनिया
और इस सबमें किसी अभ्यस्त गिलहरी की
तरह उचक-उचककर दौड़ती
आम के अचार की घरेलू गंध!
देहरी के इस ओर खाली कोने में चप्पलें
उधर झाडू। पोंछा। थोड़ा सा कबाड़ स्टूल के
ऊपर और नीचे रद्दी अखबार
फूलों के कुछ गमले। एक तुलसी का भी
(थोड़ी सी कच्ची जगह में मूल्लियां और गोभी!)
बीच-बीच में किसी के मुख से नहीं
छत से उतरती हिदायतें
’चप्पलें सीधी रखो बिटिया.....ऐसे भला क्या अच्छा लगता है’!
एक छोटा सा राज्य ...कभी शांत कभी भीतर तक अशांत
(सुबकता हिचकियां भरता हुआ!)
जहां के अपने राजा-रानी और राजकुमारियां हैं
और तीर-कमान, तलवारें भी
अज्ञात शत्रुओं से लड़ने के लिए
(कभी-कभी वे आपस में चल जाती हैं)
फिर एक तेज अश्रुपात... जख्मों को बहा ले जाने के लिए!)
एक कोना है जहां पिता सिर झुकाकर
रोज तीर-कमान टांगकर कंधे पर
जाते है रणभूमि में
लौटकर पोंछेगे रक्त
रखकर तीर-कमान: रोज की हारें और अपमान
फिर इसी कोने में
हाथ जोडकर कहेंगे धन्यवाद प्रभु!
मैंने नहीं कि किसी निरपराध की हत्या
बस उतना-उतना ही लड़ा
जितना खुद को बचाए रखने के लिए जरूरी था।
मां लपककर लाएंगी पानी। फिर चाय
जिसमें उठ रही होगी भाप
और गरम बातों की सुवास...एक साथ।
फिरा रोज-रोज के गिले-शिकवे
सुख-दुख के गुनगुने फाहे कभी लपटों भरे चर्चे
साथ-साथ खाते खाना और गम
हम समय से आगे-पीछे आ-जा रहे होते हैं
यूं ही पकाती है हमें जिंदगी
जैसे पतीली में हम पकाते है दाल
...यूं ही एक दिन पकाते-पकाते
पकते है बाल
पहले राजा के ... फिर रानी के!
फिर अंधकार ! बीच-बीच में काले आसमान
से उतरती सफेद संदेश वाहिकाएं...
होंठों पर
मौन की चोैड़ी पट्टियां....
चलो, अब सोते है!